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8 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
वे अपवाद मार्ग का जल्दी से सेवन नहीं करते वे तो आकाशदीप की भाँति सबको दिशाबोध कराते हुए अपने कदमो से नगे पाँव चलकर सतत पथदर्शक बने रहे हैं । उनका अपना भव्य चिन्तन है "मैं ही लब्धि का प्रयोग करूँगा तो भविष्य मे होने वाले साधु-साध्वी, वे तो थोडी-सी मुसीबत आने पर.... लब्धि का प्रयोग करेंगे, फिर
तुरन्त
नगे पॉव
"
पद यात्रा करने वाले क्वचित् - कदाचित् ही रह जायेगे " साधु-साध्वियो को इंगित करने के लिए प्रभु चरणो को निरन्तर गतिमान कर रहे हैं और महान् ऋद्धिशाली देव, जो स्वल्प समय मे वैक्रिय शक्ति से असंख्यात योजन पार चले जाते हैं, वे भी भक्तिवश श्रद्धावश भगवान् के साथ निरन्तर पदयात्रा कर रहे है ।
कितना अभिराम दृश्य है ! आगे-आगे भगवान् और उनके पीछे-पीछे अनेक देव, जिनके मुकुट-कुण्डल - वस्त्र और आभूषणो की दिव्य आभा से रात्रि मे भी दिवा-सम प्रकाश फैल रहा है।
निश्चल नीरव निशीथिनी " मे प्रभु की पदयात्रा का यह दृश्य अनन्त काल बाद देखने को मिल रहा है । 14 शान्त - प्रशान्त प्रहरी के समान खडे वृक्षो की पक्तियाँ फल-फूलो से लदकर प्रभु का अभिवादन कर रही हैं। भगवान् के चरण पडने से भूमि का कण-कण सुगन्धित हो रहा है। वृक्षो के झुरमुटो पर आश्रय ग्रहण किये हुए खगवृन्द मौन रहकर भगवान् का स्वागत कर रहे हैं। कल-कल निनाद करने वाले प्रपात शीतल जलधारा का उत्स प्रवाहित कर प्रभु के आगमन पर कल-कल की हर्ष ध्वनि मुखरित कर रहे हैं । भगवान् के चरण-कमल जहाँ गिरते, उससे पहले उस स्थान पर देव स्वर्ण-कमल की रचना कर अपनी भीतरी दृढ आस्था का प्रकटीकरण कर रहे है और भगवान् की अतिशय पुण्यवानी का सूचन कर रहे है । अडतालीस कोस की यह सुदीर्घ यात्रा मात्र एक ही यामिनीज मे बिना रुके, निरन्तर गमन करते हुए भगवान् तय कर रहे हैं ।" धन्य है ऐसे महान् पराक्रमी प्रभु को ।" (यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भगवान् ने अपने केवलज्ञान मे जेसा देखा वैसा किया, किन्तु अन्य सभी साधु-साध्वियो को रात्रि-विहार का पूर्णतया निषेध किया हे । वृहत्कल्प - सूत्र
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(क) अपवाद मार्ग आपत्ति में चलने योग्य मार्ग
(7) निशीथिनी - अर्द्धरात्रि
(ङ) खगवृन्द- पक्षी - समूह
(च) निनाद-आवाज
(छ) प्रपात - झरने
(ज) यामिनी - रात्रि
(ख) दिवा-सम-दिन के समान (घ) प्रहरी - पहरेदार