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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 7 शनै -शनै दिन के अन्तिम यामक का आगमन हो गया। अस्तगतष होने को उद्यत रवि पश्चिम दिशा से विदाई लेने को उद्यत है। ऐसे समय में चरम आत्मोत्कर्ष की ओर गतिमान शुभ मन, वचन, काया के योगो से, शुक्ल लेश्या मे निरत ज्ञान की अविरल धारा को शुभ्रतम बनाते हुए, चार घनघाती' कर्मोघ (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय) को क्षय करते हुए कैवल्यज्ञान उपलब्ध कर लिया।
अब शक्रेन्द्र चितन करता है-"अहो! वह कैसा अद्भुत समय था कैसा मनोरम वातावरण था । मैं (शकेन्द्र) भी स्वय असख्य देव-देवियो से परिवृतध होकर भूमण्डल पर दिव्य महोत्सव मनाने गया था। अरे मैं ही क्या? स्वय 64 इन्द्र | अपने-अपने देव-देवी परिवार सहित वसुधा पर महोत्सव मनाने गये थे
चहुँ ओर देव-देवी दिखलाई दे रहे थे, मानो कोई देवमेला लगा हो या जगती-तल पर देवो की बरात उतर आई हो। क्या धूम मची थी जभियग्राम के बाहर, ऋजुबालिका नदी के तट पर । कितना नयनाभिराम दृश्य । मनोहरी समवसरण और उसमे भगवान् की भव्य देशना अब तो स्मृति मात्र रह गयी ।
एक मूहूर्त के पश्चात् भगवान् ने विहार कर दिया और मैं मैं भी यहाँ चला आया।" (पुन शक्रेन्द्र अवधिज्ञान से वर्तमान मे भगवान् को देखकर) "ओह ! भगवान् अभी भी विहारचर्या मे निरत है। मध्यम पावा की ओर पधार रहे है। सर्वस्व प्राप्त कर लिया फिर भी कितना पुरुषार्थ । भव्य जीवो को प्रतिबोध देने के लिए, अनेक मुमुक्षुओ को सयम-पथ पर अग्रसर करने के लिए, अनेक भव्यात्माओ को कष्टो से उबारने के लिए, भोग से त्याग की पावन यात्रा करवाने के लिए, हिसा के महाताण्डव का महाविनाश करने के लिए चल रहे है, पैदल विहार पद विहार कर रहे हैं।
अपनी छोटी अगुली पर लोक को उठाने का सामर्थ्य ॥ रखने वाले, अतुल बलशाली, महान लब्धियो के धारक | वे चाहते तो अपनी शक्ति के प्रयोग से एक क्षण मे मध्यम पावा पधार जाते, लेकिन नही महान् पुरुष शक्ति का आश्रय नही लेते पुरुषार्थ को प्रधानता देते हैं लब्धि का प्रयोग नही करते
(क) याम-प्रहर (ख) अस्तगत-अस्त होने वाला (ग) घनघाती कर्म-प्रबलता से घात करने वाला कर्म (घ) कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय (ङ) केवल्यज्ञान- सम्पूर्ण ज्ञान (च) परिवृत-घिरे हुए लोनाली