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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 221 भग बतलाने के लिये नहीं है ऐसा इस गाथा की वृत्ति में कहा है-सज्वलन कषाय के उदय से सर्वविरति को अतिचार लगते है किन्तु व्रतभग नही होता और प्रत्याख्यानावरण आदि कषायो के उदय मे पश्चानपूर्वी के क्रम से सर्वविरति आदि के व्रत का भग होता है। इस प्रकार व्याख्या होने से देशविरति के व्रत का भग नहीं होता है परन्तु अतिचार होते हैं। जैसे चतुर्थ सज्वलन कषाय के उदय मे यथाख्यात चारित्र का भग होता है परन्तु दूसरे चारित्र और सम्यक्त्व का भग नहीं होता, परन्तु अतिचार होते हैं। जैसे-चतुर्थ सज्वलन कषाय के उदय मे यथाख्यात चारित्र का भग होता है परन्तु दूसरे चारित्र और सम्यक्त्व का भग नहीं होता। किन्तु अतिचार होते हैं या निरतिचार भी हो सकता है। तीसरा प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरति के सरागचारित्र का भग होता है परन्तु देशविरति के देशविरति और सम्यक्त्व का भग न होकर ये दोनो सातिचार या निरतिचार होते हैं। दूसरा अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरति का भग होता है परन्तु सम्यक्त्व भग न होकर वह सातिचार या निरतिचार होता है। प्रथम अनन्तानुबधीकषाय के उदय से सम्यक्त्व का भग होता है इस प्रकार पूर्वानक्रम से कषायो के उदय से व्रत का भग और पश्चानुक्रम से सातिचार या निरतिचार होते हैं। यहाँ कोई शका करता है कि सम्यक्त्वादि के एक-एक देश से भग होने से अतिचारो का जपरूप प्रायश्चित कहा और सब कषायो के उदय से मूलव्रत का भग कहा यह क्यो? अनन्तानबधी आदि बारह कषाय सर्वघाती है और संज्वलन कषाय देशघाती है इसलिये सर्वघाती के उदय से मूलव्रत का भग और देशघाती के उदय से अतिचार कहा। यह कहना सत्य है परन्तु अनन्तानुबधी आदि बारह कषाय सर्वघाती है यह सर्वविरति की अपेक्षा से है ऐसे शतक चूर्णिकार ने व्याख्या की है लेकिन सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा से नही की है। कहा है कि "भगवत्प्रणीत पचमहाव्रतमय अष्टादशशीलाङ्गसहस्त्र कालित चारित्र घातयन्तीति सर्वघातिन" सर्वघाति कषाय श्रमण भगवान् से कहा हुआ पञ्चमहाव्रतरूप और अठारह हजार शीलागयुक्त चारित्र का नाश करता है किन्तु यहाँ पर पहले कही हुई “यादयो यति भेदो इत्यादि गाथा के सामर्थ्य से अतिचार और भग ये देशविरति और सम्यक्त्व के लिए है, ऐसा समझना चाहिए। ___ शका-व्रत मे उपेक्षा करता हुआ व्रती क्रोधित होकर प्राणी को ताडना, तर्जनादि करे तो उसको अतिचार लगता है या नहीं? क्योकि उसने व्रत तो जीव को जान से नहीं मारने का लिया है और ताडन तर्जन आदि से प्राणी मरता नहीं है, तो अतिचार कैसे लग सकता है? उसका समाधान करते है कि जीव प्राण से मुक्त न होने पर भी व्रती जव क्रोध युक्त होकर दया से रहित हो जाता है तब व्रत का एक देश भग होता है, इसलिए अतिचार लगता है क्योकि व्रत का एक देश भग होना ही अतिचार है।
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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