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220 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय
ऐसी सवारियो की मर्यादा करना ।
उवाहणविहि- पैर की रक्षा के लिए पहने जाने वाले जूते, मोजे आदि की मर्यादा करना ।
सयणविहि - सोने और बैठने के काम मे आने वाले शय्या, पलंग आदि पदार्थों की मर्यादा करना ।
सचित्तविहि सचित्त पदार्थों की मर्यादा करना ।
दव्वविहि
खाने-पीने आदि के काम मे आने वाले सचित्त या अचित्त पदार्थों की मर्यादा करना ।
जो वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिए अलग-अलग खाई जाती है अथवा एक ही वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिए दूसरी वस्तु के सयोग के साथ खाई जाती है उसकी गणना भिन्न-भिन्न द्रव्यो मे होती है ।
धर्मसग्रह अधिकार 2, प्र 8 श्लोक 34 की टीका - उद्धृत जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, भाग 6, पृ 227
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XXXII अनर्थदण्ड
अनर्थदण्ड की व्याख्या करते हुए अभयदेव सूरि ने कहा है कि धर्म, अर्थ और काम किसी भी प्रयोजन के बिना जो दण्ड अर्थात् हिसा की जाती है उसे अनर्थ दण्ड कहते हैं। श्रावक को ऐसा अनर्थदण्ड नही करना चाहिये, जिसमे उसका कोई भी लाभ नही और व्यर्थ मे ही दूसरो को हानि पहुँचे । यथा1 अपध्यानाचरित आर्त्तध्यान और रौद्र ध्यान का चितन करना अपध्यानाचरित है। प्रमादाचरित दूध, दही को ढकने मे प्रमाद करना । हिंस्रप्रदान - हिसाकारी शस्त्र चाकू, छुरी, मूसल आदि शस्त्र दूसरो
प्रमादवश पाप रूप विकथा करना एव तेल, घी,
को देना । पापकर्मोपदेश – अग्नि जलाओ, मारो इत्यादि पाप कर्म का उपदेश
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देना । XXXIII अतिचार
कोई शका करता है कि अतिचार सर्वविरति के लिए हे और देशविरति के लिये तो भग ही हैं। कहा है कि 'सर्वेऽपि चातिचारा सज्वलनानामुदयतो भवन्ति । मूलच्छेद्य पुनर्भवति द्वादशाना कषायाणाम् अर्थात् सब अतिचार सज्वलन कषाय के उदय से लगते हे ओर प्रत्याख्यानादि वारह प्रकार के कषायो के उदय से तो मूलव्रत का भग हो जाता है। इसका समाधान करते हैं कि उक्त गाथा सर्वविरति के अतिचार और भग बतलाने के लिये हे परन्तु देशविरति आदि के अतिचार ओर