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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 207 गोभद्र-क्या पहेली बुझा रहे हो? ठग-पहेली नहीं, हकीकत है। गोभद्र-हकीकत ! ठग-हॉ हकीकत | अभी मैं कुछ दिन पहले राजगृह नगर आया था। तब माल खरीदने मे धन की कमी पड गयी थी, तो मैंने एक आँख गिरवी रखकर एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ आपसे उधार ली थी। अब मै एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ लाया हूँ जिन्हे ग्रहण कर आप मेरी आँख मुझे पून लौटा दीजिये। गोभद्र-ये तुम क्या अनर्गल प्रलाप कर रहे हो? मैं ऑख गिरवी रखने की वार्ता आज प्रथम बार तुम्हारे मुख से श्रवण कर रहा हूँ। ठग-श्रेष्ठीवर्य | चिकनी-चुपडी बाते न करो। मेरी आँख मुझे लौटा दो। गोभद्र-अरे | क्यो असत्य भाषण कर रहे हो। चले जाओ यहाँ से। नहीं तो श्रेणिक राजा तुम्हे दण्डित करेगे। ___ठग-दण्डित । अहा | क्या बात करते हो? चलो मैं स्वय चलता हूँ श्रेणिक राजा के दरबार मे। गोभद्र-अरे ! क्यो मौत के मुंह मे जाना चाहते हो? ठग-श्रेष्ठीवर्य, मृत्यु | उससे तो कायर पुरुष डरते हैं। मुझे तो न्याय चाहिए। ___गोभद्र-न्याय न्याय यह कैसा न्याय? न्याय के बहाने तुम मुझे नहीं ठग सकते। ठग-तुम ठगी की बात करते हो? अब तो मैं न्याय करवाके ही छोडूंगा। यो कहकर ठग उन पॉच पुरुषो को लेकर राजा श्रेणिक के दरबार की ओर रवाना हो जाता है। राजा श्रेणिक के पास पहुंचकर वे कहते हैं-राजन् । आपके नगर मे आपके रहते हमारे साथ अन्याय हो रहा है। श्रेणिक-अन्याय कैसा अन्याय ? ठग-राजन ! आपके यहाँ एक बार मै माल खरीदने आया तब रुपयो की कमी होने से मैंने गोभद्र सेठ के यहाँ एक ऑख गिरवी रखी और एक लाख रुपये लिये। अब मैं पुन रुपये देकर मेरी ऑख लेने हेतु आया हूँ और गोभद्र सेठ देने से इनकार कर रहा है। राजन् ! आप न्याय करके मेरी आँख मुझे पुन दिलवाइये।
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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