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206 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
भद्रा-हॉ देवानुप्रिय | मैं आज एक खुशखबर बताने हेतु आई हूँ। गोभद्र-अर्धरात्रि मे खुशखबर ? भद्रा-हॉ, आज अभी मैने एक शुभ स्वप्न देखा है। गोभद्र-अच्छा, बताओ क्या देखा? भद्रा-परिपक्व शालि खेत। गोभद्रा-तुम वीर प्रसवा सन्नारी का पद प्राप्त करोगी। भद्रा सलज्ज सिर झुकाये खडी रहती है।
गोभद्र-जैसे शालि का खेत धान्य से परिपूर्ण था, वैसे ही वीर सतान के आने से हमारा घर धन-धान्य से परिपूर्ण बनेगा। तुम्हारा यह स्वप्न अतिश्रेष्ठ है।
भद्रा-आपके वचन यथार्थ हो स्वामिन् ! यो कहकर स्वय के शयन कक्ष की ओर लौट जाती है। अवशिष्ट रजनी शुभ भावनाओ के साथ व्यतीत करती है।
निरन्तर दान, शील, तप और सुन्दर भावनाओ से स्वय का परिपोषण करती हुई भद्रा सेठानी समय आने पर सुकोमल शिशु का प्रसव करती है और स्वप्नानुसार उसका नाम शालिभद्र रखती है। शालिभद्र गोभद्र श्रेष्ठी के यहाँ पॉच धायो से परिपालित होकर शनै -शनै वृद्धिगत होने लगा। आठ वर्ष की उम्र मे कलाचार्य से शिक्षा प्राप्ति हेतु गुरुकुल मे प्रविष्ट हुआ। तरुणाई की देहली पर कदम रखते बहत्तर कलाओ मे निष्णात बन गया। युवावय के सम्प्राप्त होने पर बत्तीस श्रेष्ठ कन्याओ के साथ माता-पिता ने पाणिग्रहण किया। बत्तीस श्रेष्ठ प्रासादो में बत्तीस रमणियो के साथ वह भोग भोगने लगा।
शालिभद्र की एक अनुजा थी-सुभद्रा । यथानाम तथागुण-सम्पन्न सुभद्रा थी। युवावय मे प्रवेश कर रूप और लावण्य से आकर्षक व्यक्तित्व को धारण किये हुए थी। गोभद्र सेठ स्वय अपनी दुहिता के लिए योग्य वर की तलाश कर रहे थे। वे अपने ही समान खानदानी परिवार मे ही पुत्री को देने के लिए कटिबद्ध थे. लेकिन अभी तक उनके ध्यान मे ऐसा सुयोग्य युवक नहीं आया।
एक दिन गोभद्र सेठ अपनी बेठक मे बैठा हुआ था कि एक एकाक्षी ठग व्यापारी पॉच पूरुपो के साथ वहाँ उपस्थित हआ। उसने गोभद्र सेठ को अभिवादन किया और बोला-श्रेष्ठीवर्य । ये एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ लीजिये और मेरी आँख मुझे पुन लौटा दीजिये।
गोभद्र-तुम्हारी आँख कैसी आँख .? ठग-अरे ! एक महीने के अन्दर ही विस्मृत हो गये।