________________
4
5
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 193
कुष्पक्व औषधि भक्षण- अर्धअपक्व औषधियों का पक्व बुद्धि से भक्षण
करना ।
2.
तुच्छोषधि भक्षण - सार वस्तु कम और फेकने योग्य अधिक हो, ऐसे सीताफल आदि का भक्षण |
जिन व्यवसायो से ज्ञानावरणादि कर्मो का प्रबलता से आदान ग्रहण होता है, वे कर्मादान हैं। कर्मादान मे हिसा की प्रचुरता रहने से भगवान् महावीर ने आनन्दजी से कहा- आनन्द । पन्द्रह कर्मादान श्रावक को जानने योग्य हैं, लेकिन आचरण करने योग्य नहीं हैं । यथा
1
-
इगाल कर्म-कोयला बनाने का धधा । अन्य भी ईट, चूना, बरतन आदि पकाने का धधा । अग्नि का आरम्भ करके करना अगार कर्म अतिचार है ।
वन कर्म—बडे-बडे जगलो को ठेके से कटवाना एव लकडियाँ बेचने का धंधा करना ।
शकट कर्म - गाडी आदि वाहन बनाकर बेचने का धंधा करना ।
3
4 भाटिक कर्म-ऊँट, घोडा, बैलादि पशु किराये पर देकर अति बोझ
लादकर कमाना ।
5 स्फोटक कर्म-कुदाल, हल आदि से भूमि खोदने का कार्य करना । खाने खोदना, पत्थर फोडना आदि स्फोटक कर्म है XVI
6 दत वाणिज्य - हाथीदाँत, शख, कोडी, गाय की खाल, बाल और जीवो के अग बेचने का व्यापार कर आजीविका चलाना ।
7
लाक्षा वाणिज्य-लाख आदि का व्यापार करना ।
8
रस वाणिज्य-मदिरादि मादक रसो का व्यापार करना ।
9
विष वाणिज्य-विष, शस्त्रादि प्राणघातक वस्तुओ का व्यापार करना । 10 केश वाणिज्य - केश वाले दास-दासी, अन्य द्विपद, चतुष्पद पशु- आदि बेचने का व्यवसाय करना ।
I-पक्षी
11 यत्र पीडन कर्म-यत्रो से तिल, गन्ना आदि पीलने का व्यवसाय करना । 12. निलाछन कर्म - पशुओ को नपुंसक बनाने का काम करना । 13 दावाग्निदापनता - वन मे आग लगाने का धंधा करना ।