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192 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
उसकी सीमा का अतिक्रमण कर जाना। 3 धन-धान्य प्रमाणातिक्रमण-मणि, मोती आदि धन और चावल, मूंगादि
धान्य, इनका जितना परिमाण किया उससे अधिक रखना। द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रमण-नौकर, दास-दासी आदि द्विपद
और गाय, भैंस, घोडा आदि चतुष्पद का जितना परिमाण किया, उससे अधिक रखना। कुप्य प्रमाणातिक्रमण-कुप्य-गृहोपयोगी वस्तुओ का प्रमाण-अतिक्रमण करना। जैसे जितनी थाली, कटोरी रखी है, उनको बिना उपयोग के अधिक रखना, या कारण-विशेष से सख्या पूरी हो जाये तो दो मिलाकर एक कर देना, जैसे थाली ज्यादा हो गयी तो दो को मिलाकर एक
बडा थाल बना देना। तदनन्तर छठे दिशिव्रत के पॉच अतिचार जानने योग्य हैं, लेकिन आचरण योग्य नहीं हैं। यथा -
ऊर्ध्वदिक् प्रमाणातिक्रमण-ऊँची दिशा मे जाने की मर्यादा का अतिक्रमण करना। अधोदिशि प्रमाणातिक्रमण-नीची दिशा मे जाने की मर्यादा का अतिक्रमण करना। तिर्यदिशि प्रमाणातिक्रमण-तिरछी दिशा मे जाने की मर्यादा का
अतिक्रमण करना। 4 क्षेत्रवृद्धि करना-चार दिशाओ मे सौ योजन रखी, उसको एक मे
बढाकर 150 करना, दूसरी मे पचास कर देना। 5 स्मृत्यन्तर्धान-दिशा की मर्यादा को भूल जाने से आगे अधिक जाना।
उपभोग-परिभोग व्रत दो प्रकार का कहा गया है-भोजन की अपेक्षा और कर्म की अपेक्षा। 1 सचित्त आहार-जिस सचित्त आहार का त्याग किया है या मर्यादा
की, उसको प्रमादवश या मर्यादापूर्ण हुए बिना खाना। 2. सचित्त पडिवद्ध आहार-जिस सचित्त पदार्थ का त्याग है, उसको
सचित्त से सलग्न खाना। जैसे सचित्त आम का त्यागी आम्रफल को गुठली सहित चूसे तो यह अतिचार लगता है। अपक्व औषधि भक्षणता-अग्नि आदि से असस्कारित शालि आदि ओषधियों का दिना उपयोग भक्षण करना।