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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 189 विचिकित्सा-धर्म के फल मे सदेह करना विचिकित्सा है कि मैने इतना धर्म किया, अभी तक मुझे कोई फल नहीं मिला, आगे भी मिलेगा या नहीं? इस प्रकार की प्रवृत्ति से अनुत्साह बढता है, कार्य सिद्ध
नही होता। अतएव इसका परित्याग करना चाहिए। 4 पर-पापड प्रशसा-पाषड शब्द आज ढोग अर्थ मे प्रचलित है, जबकि
पूर्वकाल मे यह अन्यमतियो के लिए प्रयुक्त होता था। अन्यमत की प्रशसा से तात्पर्य है कि अन्यमतियो के शौचमूलक आदि हिसात्मक धर्म का सम्मान करना, इससे हमारी आत्मा का पतन होने की सम्भावना
रहती है। इसलिए इसको सम्यक्त्व का अतिचार माना है। 5 पर-पाषड सस्तव-हिसात्मक धर्म मानने वाले आदि मिथ्यादृष्टियो के
साथ परिचय रहने से मोक्षमार्ग से विचलन की स्थिति पैदा हो जायेगी।
अतएव पर-पाषड सस्तव भी अतिचार है। इसके पश्चात् भगवान् ने फरमाया-आनन्द । श्रमणोपासक को स्थूल प्राणतिपात-विरमण व्रत के प्रमुख पाँच अतिचारो को जानना चाहिए, लेकिन उनका आचरण नहीं करना चाहिए। यथा - 1 बध-पशु आदि को निर्दयतापूर्वक बाँधना। शास्त्र मे दो तरह के बध
का निरूपण है। 1 अर्थबध, 2 अनर्थबध । प्रयोजनवश रोगी आदि को चिकित्सा के लिए अथवा सुरक्षा के लिए बॉधना अर्थबध है और बिना किसी प्रयोजन बॉधना अनर्थबध है। वह आठवे व्रत अनर्थदड मे निहित है। यहाँ किसी पशु-दासादि को प्रयोजनवश बाँधना बध नहीं,
लेकिन क्रूरता, कलुषितता आदि से बाँधना बध नामक अतिचार है। टीकाकारो ने अर्थबध के दो भेद किये हैं -
1 सापेक्ष, 2 निरपेक्ष । जिस बध से छूटा जा सके वह सापेक्ष है, जैसे किसी बाडे मे आग लग गयी। वहॉ साधारणतया बॅधे पशु छट जायेगे, वह अतिचार नहीं। लेकिन पशु को ऐसे बधन से बॉधा कि वह छूटेगा
ही नहीं, मरण को प्राप्त हो जायेगा, वह अतिचार है। 2. वध-कलुषित भाव से ऐसा निर्दयतापूर्वक किसी को पीटना कि उसके
अग-उपाग खडित हो जाये, वह वध नामक अतिचार है।। छविच्छेद-छविच्छेद का तात्पर्य शोभारहित करना है। क्रोधावेशादि मे आकर किसी की चमडी आदि अगो को काटना छविच्छेद नामक अतिचार है। यद्यपि करुणा की भावना से रोगी की चीरफाड करना छविच्छेद अतिचार नहीं है, लेकिन प्रयोग के लिए (सीखने के लिए)