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________________ 186 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय वन्दन-नमस्कार किया और कहा-भते । मैं अनेक ऐश्वर्यशाली राजा, महाराजा आदि की तरह गृहत्यागी बनकर, मुडित होकर अणगार के रूप मे प्रव्रजित होने मे असमर्थ हूँ, अतएव मैं आपके सान्निध्य मे पॉच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ। __ भगवान्-देवानुप्रिय | तुम्हे जैसा सुख हो, वैसा करो, किन्तु धर्मकार्य मे तनिक भी विलम्ब मत करो। भगवान् के फरमाये जाने पर आनन्द प्रभु के मुखारविन्द से श्रावकव्रत ग्रहण करता है - 1 स्थूल प्राणातिपात विरमण-भगवन् मैं जीवनपर्यन्त दो करण-करना, कराना तथा तीन योग-मन, वचन एव काया से स्थूल हिसा का परित्याग करता हूँ| अर्थात् मै मन, वचन, काया से स्थूल हिसा न करूँगा न कराऊँगा। 2 स्थूल मृषावाद विरमण-मैं जीवनपर्यन्त मन, वचन एवं काया से स्थूल असत्य का न प्रयोग करूँगा, न कराऊँगा। 3 स्थूल अदत्ता दान विरमण-मैं जीवनपर्यन्त मन, वचन एव काया से स्थूल अदत्त दान का त्याग करता हूँ। स्वदार सतोष-मै एक अपनी शिवानन्दा भार्या के अतिरिक्त अवशेष सर्वमैथुन-विधि का परित्याग करता हूँ। 5 इच्छा परिमाण-इच्छा परिमाण व्रत मे आनन्द श्रावक ने स्वर्ण-रजत का इस प्रकार परिमाण किया - मेरे कोष मे रखी चार करोड स्वर्ण मुद्राओ, व्यापार में प्रयुक्त चार करोड स्वर्ण मुद्राओ एव घर के उपकरणो मे प्रयुक्त चार करोड स्वर्ण मुद्राओ के अतिरिक्त मैं समस्त स्वर्ण मुद्राओ का परित्याग करता हूँ। तदनन्तर आनन्द गाथापति ने चतुष्पद पशु सम्पत्ति का परिमाण किया।" दस-दस हजार गायो के चार गोकुलो के अतिरिक्त मैं सभी चौपाया पशुओ के परिग्रह का त्याग करता हूँ। तब उसने क्षेत्र वास्तु-विधि का परिमाण किया कि सौ निर्वतन (भूमि का नाप-विशेष) के एक हल के हिसाब से पाँच सौ हल के अतिरिक्त मैं समस्त क्षेत्र वास्तु-विधि का परित्याग करता हूँ। तत्पश्चात् शकट-विधि (गाडियों) के परिग्रह का परिमाण किया। पाँच सो गाडियॉ-बाहर यात्रा मे, व्यापार आदि में प्रयुक्त तथा पाँच सौ (क) वास्तु-मकान
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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