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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 183 उत्तम श्वेतवर्णी भवन निर्निमेष नेत्रो द्वारा प्रेक्षणीय, चित्ताकर्षण, दर्शनीय, अभिरूप (मन मे अपने को रमाने वाले) तथा प्रतिरूप (मन मे समाहित होने वाले) थे। इस कोल्लाक सन्निवेश मे आनन्द गाथापति के अनेक मित्र, ज्ञातिजन (समान आचार-विचार वाले अपनी जाति के लोग), निजक (माता, पिता, पुत्र, पुत्री आदि), स्वजन (बधु-बाधवादि), सम्बन्धी (श्वसुर, मामा आदि), परिजन (दास-दासी आदि) निवास करते थे। वे भी बडे समृद्धिशाली और लोगो द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त थे। इस प्रकार वाणिज्यग्राम और कोल्लाक सन्निवेश मे धनाढ्यो की बस्तियाँ थीं। जब भगवान महावीर इस वाणिज्यग्राम मे पधारे तो राजा जितशत्रु स्वय उनके दर्शन, वदन एव प्रवचन श्रवण हेतु घर से निकला, दूतिपलाश चैत्य मे पहुंचकर प्रभु की पर्युपासना करने लगा। जब आनन्द गाथापित को भगवान् के आगमन की जानकारी मिली तब वह भी भगवान् के दर्शन, वदन एव पर्युपासना हेतु जाने की तैयारी करने लगा। उसने स्नानादि कर मगल परिधान धारण किया । वस्त्राभूषणो से परिमण्डित, कोरट के पुष्पो की माला युक्त छत्र धारण कर, अनेक पुरुषो से घिरा हुआ पैदल ही दूतिपलाश चैत्य मे पहुँचा । भगवान् को वदन-नमस्कार कर उनकी पर्युपासना करने लगा। भगवान महावीर ने उस समय आनन्द गाथापति एव विशाल परिषद को अर्धमागधी भाषा" मे धर्मोपदेश दिया-- लोक का अस्तित्व है और अलोक का भी अस्तित्व है। जीव, अजीव, बध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आश्रव, सवर, वेदना, निर्जरा, अर्हत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यच, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्ध भगवान्, सिद्धि आदि ये सब काल्पनिक नहीं हैं, इनका अस्तित्व है। प्राणातिपातादि अठारह पाप-स्थान का यथार्थ ज्ञान करके इनका त्याग करना चाहिए। प्रशस्त दान, शील, तप आदि उत्तम फल देने वाले हैं, जबकि अप्रशस्त पाप-कर्म दुखमय फल देने वाले हैं। जीव पुण्य और पाप से शुभाशुभ कर्म का बध करता है, जो कि निष्फल नहीं होता। वस्तुत इस लोक मे निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य, सर्वोत्तम, अद्वितीय, सर्वभाषित, अत्यन्त शुद्ध, परिपूर्ण, न्यायसगत, शल्य निवारक, सिद्धावस्था प्राप्त करने का उपाय, मुक्ति-मार्ग, निर्याण-मार्ग, निर्वाण-मार्ग, अवितथ-वास्तविक, अविसधि-विच्छेद रहित, सब दुखो को क्षीण करने वाला है। इसमे स्थित जीव बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त होकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। जिन मनुष्यो के एक भव धारण करना अवशेष रहा है, वे देवलोक मे दीर्घायु एव विपुल ऋद्धि के स्वामी होते है। वे देवशय्या मे युवावस्था रूप मे ही उत्पन्न होकर बहुमूल्य वस्त्राभरणो - AM Mr . ५ . .. "
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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