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166 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
हे देवानुप्रिय । यह जन्म-जरा-मरण से भयभीत हुआ है। अतएव यह गृहस्थ से सन्यास जीवन को अगीकार करना चाहता है। हम आप देवानुप्रिय को शिष्य-भिक्षा देते है। आप इसे स्वीकार कीजिए। ___भगवान् ने फरमाया-देवानुप्रिय ! तुम्हे जैसा सुख हो वैसा करो, किन्तु धर्मकार्य मे विलम्ब न करो।
भगवान द्वारा ऐसा कहने पर जमालिकुमार हर्षित, सतुष्टित होकर, भगवान् को वदन-नमस्कार करके ईशान कोण मे गया जहाँ उसने आभूषण, माला और अलकार उतार दिये। जिन्हे जमालि क्षत्रियकुमार की मॉ ने हस चिह्न वाले रेशमी वस्त्र मे ग्रहण कर लिया और नेत्रो से ऑसू की लडी गिराती हुई बोली-पुत्र! सयम मे चेष्टा करना, सयम मे यत्न करना, सयम मे पराक्रम करना, सयमी क्रियाओ मे जरा भी प्रमाद मत करना।
ऐसा कहकर जमालि के माता-पिता जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा मे लौट गये।
तत्पश्चात् जमालिकुमार ने स्वयमेव पचमुष्टिक लोच किया और उसने 500 पुरुषो के साथ ऋषभदत्त ब्राह्मण की तरह ही भगवान से प्रव्रज्या अगीकार की। सयम लेकर जमालि ने सामायिक आदि ग्यारह अगो का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला, तेला, अर्द्धमास, मासखमण आदि विचित्र तप कर्म से आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा। ___ जमालि के साथ प्रियदर्शना ने भी एक हजार स्त्रियो के साथ सयम अगीकार किया और प्रियदर्शना भी साध्वी चन्दनबालाजी आर्या के पास शास्त्रो का अध्ययन कर विविध प्रकार की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरण करने लगी।
इस प्रकार भगवती सूत्र मे ब्राह्मणकुण्ड मे ही जमालि की दीक्षा का उल्लेख है" जबकि त्रिषष्टिशलाकापुरुषचारित्र एव महावीरचरिय मे ऐसा उल्लेख है कि ब्राह्मणकुण्ड मे ऋषभदत्त एव देवानन्दा की दीक्षा के पश्चात् भगवान् क्षत्रियकुण्ड पधारे। वहाँ भगवान् का समवसरण हुआ और स्वय राजा नन्दिवर्धन विशाल राज-परिवार सहित भगवान् की धर्मदेशना श्रवण करने के लिए पहुंचा। उस समय भगवान का जमाता जमालि एव पुत्री प्रियदर्शना'il भी धर्मदेशना श्रवण करने हेतु वहाँ उपस्थित हुई। धर्म श्रवण कर जमालि प्रतिबुद्ध हुआ और उसने 500 पुरुषो के साथ सयम अगीकार किया। प्रभु की पुत्री प्रियदर्शना ने भी एक हजार स्त्रियो के साथ सयम ग्रहण किया।"