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160 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय मै ससार के भोगो से विरक्त बनकर भगवान् महावीर की सन्निधि मे सयम ग्रहण करने जा रहा हूँ। माता-पिता की अनुज्ञा मिल गयी है और अब तुम भी
प्रियदर्शना-स्वामिन । आपका शरीर अत्यन्त सुकुमाल और त्याग का मार्ग वह दुष्कर है सुदुष्कर है, अतीव दुष्कर है। तब कैसे उस मार्ग पर.
आप चल पायेगे?
जमालि-शूरवीरो के लिए सयम सुकर है। मैंने अपना दृढ निश्चय कर लिया है। अब मैं भोगो के कीचड मे नहीं रहूँगा।
प्रियदर्शना-जब आप चले जायेगे, तब हमारा क्या होगा ?
जमालि-तुम तो स्वय भगवान् की पुत्री हो। तुम क्यो नहीं भगवान् के बताये मार्ग का अनुसरण कर लेती हो?
प्रियदर्शना-ठीक है, मैं भी इस पर चल सकती हूँ, फिर क्यो न आपका ही अनुगमन कर लूं।
ऐसा विचार कर प्रियदर्शना भी सयम के लिए तैयार हो गयी और उसने भी जमालि के साथ सयम लेने का दृढ निश्चय कर लिया।
जमालि दीक्षा के लिए पलक-पॉवडे बिछा रहा था कि मैं अतिशीघ्र इन मोह की बेडियो को तोड डालूं। उसका मन सयम ग्रहण करने के लिए पूर्ण तत्पर था। उसके पिता ने भी उसकी तत्पर भावना का समादर करते हुए दीक्षा की तैयारियाँ प्रारम्भ करने का विचार किया।
जमालि राजकुमार के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषो को बुलाया और कहा-देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही पूरे क्षत्रियकुण्ड ग्राम में पानी का छिडकाव करो और नगर की भूमि को साफ-स्वच्छ बना डालो। तब उन कौम्बिक पुरुषों ने जमालि के पिता की आज्ञा से नगर को स्वच्छ, सुथरा, परिमडित किया।
जमालि के पिता ने पुन कौटुम्बिक पुरुषो को बुलाया और कहा-हे देवानुप्रियो शीघ्र ही जमालि राजकुमार के लिए महामूल्य, महान पुरुषो के योग्य और विपुल निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी करो। पिता की आज्ञा होने पर कोटुम्बिक पुरुषों ने निष्क्रमणाभिषेक की सामग्री उपस्थित की।
तत्पश्चात् माता-पिता ने जमालि राजकुमार को पूर्वाभिमुख करके सिहासन पर विठलाया ओर एक सो आठ स्वर्ण कलशो से, एक सौ आठ रजत कलशो से. एक सौ आठ स्वर्ण-मणिमय कलशो से, एक सौ आठ रजत-मणिमय कलशा से, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत-मणिमय कलशो से, एक सौ आठ मिट्टी के कलशा से शख, प्रणव, भेरी, झल्लरी, खरमुही, मुरज, मृदग और दुदुभि के घोष सहित