________________
148 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
महावीर के समय मे श्रावस्ती और आलभिया के निकट मुकुन्द और वासुदेव की पूजा का उल्लेख मिलता है। शिवमह - शिव की पूजा भी भगवान् महावीर के समय प्रचलित
थी। 6 वैश्रमण :- वैश्रमण कुबेर को कहा है। 7 नागमह - इसका वर्णन ज्ञाता 8, पृ 95 पर मिलता है।
8 यक्षमह - तीर्थंकरो के यक्ष-यक्षिणी होते हैं। LXVI ज़ुभक
स्वच्छन्दाचारी की तरह चेष्टा करने वाले को जृम्भक कहते हैं। जृम्भक देव सदा प्रमोदी, अतीव क्रीडाशील, कन्दर्प मे रत और मोहन (मैथुन सेवन) शील होते हैं। जो व्यक्ति उन देवो को क्रुद्ध हुए देखता है वह महान् अपयश प्राप्त करता है और जो उन देवो को तुष्ट हुए देखता है, वह महान् यश को प्राप्त करता है सतत् क्रीडा आदि मे रत रहते हैं ऐसे तिर्जालोकवासी व्यन्तर जृम्भक देव हैं। ये अतीवक्रामकीडा रत रहते हैं। ये वैरस्वामी की तरह वैक्रिय लब्धि आदि प्राप्त करके शाप और अनुग्रह करने में समर्थ होते हैं। इस कारण जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसे धनादि से निहाल कर देते हैं और जिन पर कुपित होते हैं उन्हे अनेक प्रकार से हानि भी पहुंचाते हैं।
मुंभक देव 10 प्रकार के कहे गये हैं -
अन्न जंभक - भोजन को सरस-निरस कर देने या मात्रा घटा-बढा देने वाले देव।
पान मुंभक - वस्त्र को घटाने–बढाने आदि की शक्ति वाले देव। लयन जुंभक - घर, मकान आदि की सुरक्षा करने वाले देव। शयन जॅमक - शय्या आदि के रक्षक देव। पुष्प फल मुंभक - फलों फूलो व पुष्प फलों की रक्षा आदि करने वाले देव । विद्या जृमक - देवी के मत्रो-विद्याओं की रक्षा आदि करने वाले देव।
अव्यक्त मुंभक - सामान्यतया सभी पदार्थों की रक्षा आदि करने वाले देव । कहीं-कहीं इसके स्थान मे “अधिपति जृभक पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है, राजादि नायक के विषय मे जृभक देव।
जूंमक देव के निवास - 5 भरत, 5 ऐरावत, 5 महाविदेह इन 15 क्षेत्रो मे 170 दीर्घ वैताढ्य पर्वत है। प्रत्येक क्षेत्र मे एक-एक पर्वत है तथा महाविदेह क्षेत्र के प्रत्येक विजय मे एक-एक पर्वत है, जृभक देव सभी दीर्घ वैताढ्य मे