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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 139 बाईस तीर्थकरो ने एक, दो, तीन अथवा सब बोलो की आराधना की ऐसा हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति मे कहा हैं - “पुरिमेण पच्छिमेण य एए सव्वेऽवि फासिया ठाणा। मज्झिमएहि जिणेहि, एक्क दो तिण्णिसव्वे वा' आवश्यक सूत्र, भाग I, प 119 XXXII तीर्थंकर जो जीव निकाचित तीर्थकर नाम कर्म बॉधता है, वह नियम से मनुष्य गति का होता है तथा उसके सम्यक् दृष्टि सहित शुभ लेश्या होती है। लेश्या कोश (द्वितीय खण्ड) पृ 42 सम्पा स्व मोहनलाल बॉठिया, श्रीचन्द चोरडिया, प्रकाशक जैन दर्शन समिति, कलकत्ता, सन् 2001 XXXII अतिशय आचार्य अमयदेवसूरि व आचार्य हेमचन्द्र के अतिशय वर्णन मे कुछ अन्तर परिलक्षित होता है। भाषा दोनो ने भगवान् की अर्धमागधी मानी है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार 19 अतिशय देवकृत हैं जबकि अभयदेव की दृष्टि से 15 अतिशय देवकृत है। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि भगवान् का मुख चारो ओर दिखाई देता हे वह देवकत अतिशय है जबकि दिगम्बर दृष्टि से केवलज्ञान कृत है। तीन की रचना को भी देवकृत अतिशय माना है पर समवायाग के चौतीस अतिशयो मे उसका उल्लेख तक नहीं है। आचार्यों ने अतिशयो का जो विभाजन किया, उस सम्बन्ध मे सबल तर्क का अभाव है। समवायाग मूल मे किसी प्रकार का विभाजन नहीं किया गया है। समवायांग की भाँति अंगुत्तरनिकाय (5/121) में तथागत बुद्ध के पाँच अतिशय बतलाये हैं :1 वे अर्थज्ञ होते हैं। 2 वे धर्मज्ञ होते हैं। 3 वे मर्यादा के ज्ञाता होते हैं। 4 वे कालज्ञ होते हैं। 5 वे परिषद् को जानने वाले होते है। xxxiv देशी भाषा यहाँ देशी भाषा के सोलह नाम ही मिलते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ ए मास्टर ने (A Master-B Soas XIII-2, 1950 PP 41315) कहा है कि सोलह भाषाओं में औड़ और द्राविडी भाषाएँ मिलने पर अठारह देशी भाषाएँ हो जाती है।
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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