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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 129 पक्तियो के मध्य मे रहे हुए इन्द्रक विमान गोल है, पश्चात् पक्ति मे प्रथम त्रिकोण फिर चौकोर और फिर गोल विमान ऐसा क्रम है और पुष्पावकीर्ण विमान विविध आकार वाले हैं। ये पुष्पावकीर्ण विमान पूर्व दिशा की पक्ति को वर्जित करके शेष तीन पक्तियो को आतरे मे समझना चाहिये । पक्तिगत विमानो का जो असख्य-2 योजन का अन्तर है, उसमे पुष्पावकीर्ण विमान होते हैं। साथ ही अवतसक विमान और इन्द्रक विमान भी पक्ति मे प्रारम्भ के बीच मे होते हैं, तो पूर्व दिशा के अन्तर को वर्जित करके शेष तीनो पक्तिगत विमानो के आन्तरे मे पुष्पावकीर्ण विमान अवश्य होते हैं।
वृहत्संग्रहणी गाथा 111 पृ 291 ___VI आवलिका प्रविष्ट
आवलिका गत (पक्तिबद्ध) विमानो का परस्पर अन्तर असख्यात योजन का है, जबकि पुष्पावकीर्ण विमानो का परस्पर अन्तर प्रमाण सख्यात, असख्यात योजन का भी होता है।
वृहत्सग्रहणी वैमानिक-निकाय गाथा 99 VII अवतसंक
राजप्रश्नीयसूत्र मे सौधर्म देवलोक का वर्णन-हे गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर (सुमेरू) पर्वत से दक्षिण दिशा मे इस रत्न प्रभा पृथ्वी के रमणीय समतल भू-भाग से ऊपर उर्ध्व दिशा मे चन्द्र, सूर्य ग्रह गण नक्षत्र और तारा मण्डल से आगे भी ऊँचाई मे बहुत से सैकडो योजनो, हजारो योजनो, लाखो योजनो, करोडो योजनो और सैकडो करोड, हजारों करोड, लाखो करोड योजनो, करोडो करोड योजनो को पार करने के बाद प्राप्त स्थान पर सौधर्म कल्प नाम का कल्प है अर्थात् सौधर्म नामक स्वर्ग लोक है। वह सौधर्म कल्प पूर्व पश्चिम लम्बा, उत्तर-दक्षिण विस्तृत चौडा है। अर्धचन्द्र के समान उसका आकार है। सूर्य किरणो की तरह अपनी द्युति काति से सदैव चमचमाता रहता है। असख्यात कोडा-कोडी योजन प्रमाण उसकी परिधि है। उस सोधर्म कल्प मे सौधर्म कल्पवासी देवो के 32 लाख विमान बताये हैं। वे सभी विमानवास सर्वात्मना रत्नो से बने हुए स्फटिक मणिवत् स्वच्छ यावत् अतीव मनोहर हैं। उन विमानो के मध्यातिम य भाग मे ठीक बीचो बीच पूर्व दक्षिण और पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओ मे अनुक्रम से अशोक अवतसक, चम्पक अवतसक, आम्र अवतसक तथा मध्य में सौधर्म अवतसक से पाँच अवतसक है। ये पॉचो अवतंसक भी रत्नो से निर्मित यावत् प्रतिरूप-अतीव मनोहर हैं।
राजप्रश्नीय सूत्र, पत्रांक 59-63