________________
126 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय
वैराग्य भावना का जागरण हुआ और वह सयम लेने हेतु उद्यत हुआ। उसी सभा मे श्रेणिक राजा भी था । तब रोहिणेय ने राजा श्रेणिक से कहा- राजन् ! मैं रोहिणेय चोर हूँ। मै अभयकुमार की बुद्धि का छल द्वारा उल्लघन कर गया। मैने आपके पूरे नगर को लूटा | अब आप मेरे साथ किसी को भेजो ताकि मैं चोरी का समग्र माल दे देता हॅू और उसके पश्चात् मैं दीक्षा लूँगा ।
विस्मयान्वित हो राजा श्रेणिक ने अभयकुमार सहित कई व्यक्तियो को भेजा। रोहिणेय ने जहाँ-जहाँ धन छिपा रखा था वहाँ-वहाँ पर्वत, सरिता, कु, श्मशान आदि से धन निकाल कर दे दिया । अभयकुमार ने भी जिस-जिस का धन था, उस-उस व्यक्ति को पुन धन लौटा दिया।
तत्पश्चात् रोहिणेय ने अपने पारिवारिक जनो से दीक्षा की अनुमति मांगी, श्रेणिक राजा ने उसका अभिनिष्क्रमण महोत्सव किया और रोहिणेय LXXIII भगवान् के मुखारविन्द से सयम ग्रहण कर साधुचर्या का पालन करने लगा। *168 भगवान् महावीर भी जघन्य से भी करोडो देवो से घिरे हुए तीर्थंकर नाम कर्म की निर्जरा करते हुए धर्मोपदेश की श्रुत गगा प्रवाहित करते हुए अनेक राजा, युवराजा, मंत्री आदि को साधु एव श्रावक बनाते हुए राजगृह से विदेहLXXXIV की ओर विहार कर ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे ।
(क) कुंज - लताओ और पौधो से आच्छादित स्थान
(ख) अभिनिष्क्रमण - संसार त्याग कर दीक्षा लेने वाले का महोत्सव
* टिप्पणी - रोहिणेय ने दीक्षा लेने के पश्चात् विविध प्रकार की तपश्चर्या की, उपवास सं लेकर छ मासी तक तप किया। इस प्रकार विभिन्न तपश्चर्या करते हुए, वैभारगिरि पर अनशन करत हुए, पंचपरमेष्ठि का स्मरण करते हुए उसने देह त्याग कर स्वर्ग को प्राप्त किया।