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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 125 कि ये वस्तुत यह स्वर्ग है या अभयकुमार द्वारा विरचित प्रपच है। ऐसा ही विनिश्चय करके रोहिणेय ने उन गधर्वो और अप्सराओ की ओर देखा और देखकर निर्णय करने लगा-"अरे ! इनके तो पैर धरती का सस्पर्श कर रहे हैं, नेत्र टिमटिमा रहे हैं, शरीर पर मोतियो की लडी की तरह स्वेद बिदु चमक रहे हैं। ये वस्तुत देव नहीं, ये अभयकुमार द्वारा रचित माया है। अतएव रोहिणेय ने निश्चित होकर उस प्रतिहारी पुरुष से कहा-मैंने पूर्वभव मे सुपात्र दान दिया है, सद्गुरु की सेवा की है।
प्रतिहारी-और कोई दुष्कृत्य किया हो, वह भी बताओ। रोहिणेय-मैंने कोई दुष्कृत्य नहीं किया।
प्रतिहारी-सम्पूर्ण जीवन एक जैसे स्वभाव मे व्यतीत नहीं होता, कभी जीव सुकृत्य करता है तो कभी दुष्कृत्य भी। इसलिए चोरी आदि कोई भी दुष्कृत्य आपने किया हो तो बताओ।
रोहिणेय-दुष्कृत्य करने वाला क्या कभी स्वर्ग प्राप्त करता है? क्या अधा पुरुष पर्वत पर आरोहण करता है?
तब वह प्रतिहारी जान गया कि यह चोर ऐसे सत्य नहीं बोलेगा। अतएव उसने सारी बात जाकर राजा से निवेदन करदी। राजा ने अभयकुमार से कहा कि चोर इन उपायो से पकडा नहीं जा रहा है, अत हमे चोर को छोड देना चाहिए क्योकि हमने चोर को छल से पकड़ा है। अत नीति का उल्लघन नही करना चाहिए। पितृ-वचन को शिरोधार्य कर अभयकुमार ने चोर को मुक्त कर दिया। मुक्त होने के पश्चात् रोहिणेय ने विचार किया कि मेरे पिता की आज्ञा को धिक्कार है कि मैं भगवान् का प्रवचन नहीं सुन सका। यदि कॉटा निकालते समय मैं भगवान के वचनो को नहीं सनता तो आज में यमलोक पहुंच जाता। प्रभु के स्वल्प उपदेश से मेरे प्राण सुरक्षित रह गये तो यदि सारा उपदेश सुन लूँ तो सब-कुछ अच्छा होगा, ऐसा चितन कर वह प्रभु चरणो मे पहुंच गया।
भगवान् के समीप जाकर शुद्ध मन से आलोचना करने लगा-भते ! मेरे पिता ने आपके वचनो को सुनने का निषेध किया था, इसलिए में इधर से निकला तो कानो मे अगुली डाली, लेकिन कॉटा चुभा, मेंने अगुली निकाली, आपके वचन सुने, उससे आज मैं यमलोक जाता हुआ बच गया। भगवन् ! अब में परिपूर्ण आस्था से आपके उपदेश को श्रवण करने आया हूँ।
भगवान ने रोहिणेय की बात को सुना और उस समय उस विशाल परिषद को एव रोहिणेय को धर्मोपदेश दिया, जिसे श्रवण कर रोहिणेय के भीतरी मन में