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________________ 124 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय राजा रोहिणेय की बात श्रवण कर सशक बन जाता है, वह गुप्त रीति से पुरुषो को शालिग्राम जानकारी के लिए भेजता है। उस रोहिणेय ने पहले ही शालिग्राम के लोगो को सकेत कर रखा था। इसलिए जैसे ही गुप्तचरो ने शालिग्राम वालो से पूछा कि क्या यहाँ पर दुर्गचण्ड नामक कोई कुटुम्बी रहता है? तब गाँव वालो ने कहा-हॉ, लेकिन इस समय वह दूसरे गाँव गया हुआ है। गुप्तचरो ने आकर राजा से वैसा ही निवेदन कर दिया। तब अभयकुमार ने कहा-कपट का जाल अत्यन्त पेचीदा होता है, उसका अन्त तो ब्रह्मा भी नहीं जान सकते। अब मैं इसके चौर्यकर्म का पर्दाफाश करता हूँ, यो कहकर अभयकुमार ने सात मजिला, रत्नजटित एक महल बनवाया। वह प्रासाद अपनी रमणीय आभा से स्वर्गोपम लग रहा था। उस भव्य प्रासाद मे अभयकुमार ने गधर्व सगीत प्रारम्भ करवाया, जिसमे वह गधर्वनगर-सम अभिगुजित होने लगा। तत्पश्चात् अभयकुमार ने चोर को मद्यपान करवाकर उसे बेसुध कर दिया और देवदूष्य वस्त्र पहिनाकर उस महल की मखमली शय्या पर उसे लिटा दिया । अनेक युवक-युवतियो को पलग के चारो ओर वस्त्राभूषणो से परिमण्डित" करके ऐसा खडा कर दिया मानो उसकी सेवा मे देव और अप्सराएँ खडी हो। अब जैसे ही उस रोहिणेय का नशा उतरा, वैसे ही देवरूप धारण करने वाले युवक-युवतियो ने कहा-हे नाथ ! आपकी जय हो। हे भद्र ! आपकी जय हो। इस विशाल विमान में आप हमारे स्वामी बनकर देवरूप मे पैदा हुए हो। हम आपका स्वागत करते हैं, आप इन अप्सराओ के साथ विपुल देव सम्बन्धी दिव्य भोगो को भोगो। तब रोहिणेय असमजस की स्थिति मे आ गया कि क्या में वस्तुत देव बन गया हूँ। उसी समय प्रतिहारी ने कहा-नाथ | आपने पूर्वभव मे कौनसा सुकृत या दुष्कृत किया, जिससे आपको यह स्वर्ग का सुख मिला है? तब रोहिणेय ने सशयग्रस्त होकर चितन किया कि अरे ! मैं वास्तव मे देवलोक मे पैदा हुआ हूँ? या अभयकुमार ने मेरी परीक्षा लेने हेतु ऐसा स्वाग रचा है? अब कैसे सत्य के निकट पहुँचूँ । सत्य के निकट पहुँचने के लिए महापुरुषो के वचन ही आश्रयणीय होते हैं। बस, यही सोचकर वह भगवान् महावीर का स्मरण करने लगा। तब उसके स्मृतिपट पर भगवान् महावीर के उन वचनो का स्मरण हो आया कि जब मैं कॉटा निकाल रहा था, तब भगवान् ने देवो की पहिचान बतलाई थी। अब उसके अनुसार ही परीक्षा करके देखता हूँ (क) गंधर्व-गधर्व नामक व्यतरों का प्रिय संगीत (ख) गंधर्वनगर-गंधर्व नामक व्यंतरों का नगर (ग) परिमण्डित-सुसज्जित
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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