SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 123 जाता। इस प्रकार निरन्तर अदृश्य चोरियॉ होने से राजगृह की जनता मे आतक फैल गया। जनता के सब्र का बाँध टूट गया और सेठ-साहूकारो ने मिलकर राजा श्रेणिक से एक दिन शिकायत कर ही डाली कि राजन् | आपके राज्य मे हमे अनेक प्रकार की सुविधाएँ हैं, हमे किसी प्रकार का कोई भय नही है, लेकिन एक चोर दिन-दहाडे हमारे घरो को, हमारी दुकानो को लूट रहा है। इससे हमारे हृदय निरन्तर सशकित हो रहे हैं। राजा-तुम्हारी इस समस्या का समाधान कर ही देगे, तुम निश्चिन्त रहो। राजा के आश्वासन से सेठ-साहूकार आश्वस्त बन जाते हैं। तब श्रेणिक राजा कोतवाल को बुलाकर कहता है-क्या तुम चोर हो? या चोर के भागीदार हो कि तुम्हारे रहते हुए चोर नगर को लूट रहा है। तब कोतवाल बोला-राजन् ! रोहिणेय नामक चोर इस कदर जनता को लूट रहा है कि वह देखने पर भी दिखाई नहीं देता है। वह इतना फुर्तीला है कि विद्युत-किरणो की भॉति उछलता हुआ, बन्दर की तरह छलॉग लगाता हुआ, एक आवाज लगाये जितने मे एक घर से दूसरे घर जाता हुआ नगर का किला तक भी उल्लघन कर लेता है। अतएव राजन मैं उसे पकडने मे सामर्थ्यवान नहीं हूँ। __ तब राजा श्रेणिक ने भृकुटी तान ली। उसी समय प्रज्ञा के सागर अभयकुमार ने कोतवाल से कहा-तुम गुप्त रीति से चतुरगिणी सेना सजाकर नगर के बाहर पडाव डाल दो, जब चोर नगर मे प्रवेश करे, तब उसे पकड लेना। कोतवाल ने दूसरे दिन वैसा ही किया। नगर के बाहर गुप्त रीति से पडाव डाल दिया। प्रथम दिन तो रोहिणेय आया ही नहीं और दूसरे दिन जैसे ही नगर मे रोहिणेय ने प्रवेश किया, सेना ने उसे पकडकर बदी बना लिया और तब लाकर राजा को सौंप दिया। राजा ने उसे अभयकुमार को सौंप दिया ओर उस चोर से पूछा-तू कहाँ का रहने वाला है? तेरी आजीविका कैसे चलती हे? तू इस नगर मे किसलिए आता हे और तुम्हारा नाम रोहिणेय हे, क्या यह बात सत्य है? राजा के इन प्रश्नो को श्रवण कर रोहिणेय ने विचार किया कि राजा को अभी तक मेरे नाम पर सदेह है? अतएव उसका लाभ उठाना चाहिए। यही सोचकर रोहिणेय बोला-राजन् । में शालिग्राम का रहने वाला दुर्गचण्ड नामक कुटुम्बी है। किसी प्रयोजनवश मैं राजगह मे आया था। किसी देवालय में रात्रि विश्राम के लिए रुका था। बहुत रात्रि बीतने पर घर जाने के लिए निकला. तो आपका कोतवाल पकड़ने लगा। इसके भय से त्रस्त हुआ में किले का उल्लघन करने लगा तो किले के बाहर रहने वाले सिपाहियो ने मुझे पकड लिया। क्या इस प्रकार निरपराधी व्यक्ति को पकड कर रखना न्यायसगत है?
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy