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122 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय नगर पधारे। देवो ने राजगृह मे समवसरण की रचना की उस समय रोहिणेय चोर राजगृह नगर में चोरी करने गया। उसके पास मे गगन गामिनी पादुकाएं थी और वह रूप परावर्तनी विद्या भी जानता था इसलिए दिन के समय भी वह एक घर में घुसकर चोरी करने लगा। पडौसियो को पता लगा लोग एकत्रित हो गये वह भागा तो जल्दी-जल्दी मे गगन-गामिनी पादुकाएँ वही रह गयी। जिस मार्ग से भाग रहा था उधर ही भगवान् का समवसरण था। जैसे ही भगवान् का समवसरण उसके दृष्टिपथ मे आया, उसने चितन किया "अरे ! यह भगवान् का समवसरण है, यदि मैं इधर से निकलूंगा तो पितृ आज्ञा भग का दोष लगेगा, लेकिन राजगृह मे जाने का इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग भी नहीं। तब क्या करूँ ? वापिस लौट जाऊँ ? नहीं नहीं वापिस तो नहीं जाऊँगा। अरे हॉ! ऐसा करता हूँ कि अपने दोनो कर्ण छिद्रो को अगुलियो से ढक लेता हूँ। तब मेरा कार्य भी हो जायेगा और पिता की आज्ञा का पालन भी। यही श्रेष्ठ उपाय है।" यही चितन कर उसने अपने कर्ण-कुहरो मे अगुलियाँ डाल ली और समवसरण के समीप से गुजरने लगा। लेकिन होनहार बलवान है, इसान सोचता कुछ है और घटित होता कुछ और है। तमन्नाएँ, तमन्नाएँ ही रह जाती हैं।
रोहिणेय चोर जैसे ही समवसरण के समीप से गुजर रहा था, वैसे ही उसके पैर मे कॉटा लग गया, कॉटा भी ऐसा, जिसको निकाले बिना आगे कदम रखना असम्भव था। तब उसने एक हाथ को कान से हटाकर कॉटा निकालना प्रारम्भ किया और प्रभु की वाणी उसके कानो मे हलचल पैदा करने लगी। क्योकि निषेध मे आकर्षण होता है, प्रतिकार के प्रति उत्सुकता जाग जाती है। उसका हाथ कॉटा निकाल रहा है तो कान प्रभु की वाणी को ग्रहण कर रहे हैं। प्रभु फरमा रहे है -
___ "जिनके चरण धरती पर सस्पर्शित नहीं होते, जिनके नेत्र निर्निमेष रहते हैं, जिनके गले में धारण की हई पुष्प माला खिलती हई रहती है, जिनका गात्र स्वेद एव रजकणो से रहित होता है, वे देव होते हैं । 167
प्रभु के इन वचनो को श्रवण कर रोहिणेय चितन करता है "ओह | मैंने बहुत सुन लिया मुझे धिक्कार है धिक्कार है।" ओर वह जल्दी से कॉटा निकालकर तीव्र कदमो से वहाँ से चला जाता है।
राजगृह मे प्रविष्ट होकर रोहिणेय दिन-दहाडे चोरी करता है। उसके पास मे इस प्रकार का अजन था, जिसे वह ऑखो मे लगा लेता और अदृश्य हो (क) स्वेद-पसीना