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116 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय
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का छेदन, ताकि मेरे और मेरे स्वामी के कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जाये। इस प्रकार चितन करके उस बढई ने उपवास किया। उपवास करके गध, धूप, माल्यादि से उस वृक्ष को सुवासित किया । तभी वृक्ष आश्रित व्यन्तर देव अपने आश्रय की रक्षा के लिए अभयकुमार के पास आया और बोला - कुमार । तुम उस बढई को मना करो। जिस वृक्ष का वह छेदन करने जा रहा है, वह वृक्ष मेरा आश्रयभूत है । स्वय तुम्हारी महारानी के लिए एक स्तम्भ वाले प्रासाद का निर्माण करवा दूँगा । साथ ही सर्वऋतुओ से मंडित, सर्व वनस्पतियो से शोभित नन्दनवन जैसा उद्यान भी बना डालूँगा ।
अभयकुमार ने देव से कहा- "ठीक है ।" देव अपने स्थान पर लौट गया और अभयकुमार ने बढई को जंगल से बुला लिया। उसने बढई से कहा- हमारा सर्वकार्य सिद्ध हो गया है, अब हमे प्रयत्न करने की जरूरत नहीं है । बढई अपने स्थान को लौट गया ।
व्यन्तर देव वचनबद्ध था। उसने अपने वचनानुसार अतिशीघ्र एक स्तम्भ वाले प्रासाद का एव नन्दनवन सम उद्यान का निर्माण कर दिया और अभयकुमार से कहा - कुमार, मैंने अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रासाद व उद्यान का निर्माण कर दिया है।
अभयकुमार देव से यह श्रवण कर सम्राट् के पास गये और व्यन्तर द्वारा प्रासाद एव उद्यान के निर्माण की बात बताई । श्रेणिक यह श्रवणकर अत्यन्त प्रमुदित हुआ । उसने चेलना को वह प्रासाद समर्पित कर दिया और स्वय वहाँ चेलनादेवी के साथ विपुल भोग भोगने लगा ।
आम्रहरण: विद्याग्रहण :
राजगृह नगर मे अनेक व्यक्ति अनेक कला-कौशल से सम्पृक्त थे । यहाँ एक मातग नामक विद्या- सिद्ध व्यक्ति रहता था। एक बार उसकी पत्नी सगर्भा हुई । तब उसे दोहद पैदा हुआ-आम्रफल खाने का। उसने अपने पति से कहा - स्वामिन् ! मुझे दोहद पैदा हुआ है- आम्रफल खाने का ।
पति बोला- देवी ! अकाल मे आम्रफल कहाँ मिलेगा ?
उसकी पत्नी बोली- आप चेलना के उद्यान में जाओ, वहाँ आम्रफल मिल जायेगा।
उसने कहा- ठीक है। ऐसा कहकर वह चेलना के उद्यान के पास आया। वहाँ उसने देखा आम्रवृक्ष पर परिपक्व आम्रफल लटक रहे थे, लेकिन वह वृक्ष बहुत ऊँचा था और उद्यान से बाहर रहकर उसमे से तोडना सभव नहीं था । वह वहाँ देखकर चला गया। रात्रि मे आया, अपनी विद्या से डाली नीचे की और स्वेच्छा से आम्रफल तोडकर घर ले गया ।