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________________ 112 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग- द्वितीय अनेक प्रकार की क्रीडाऍ करके रति-सुख का अनुभव करता था । कभी जलक्रीडा करता हुआ कृष्णराज के समान उसकी विशाल केश राशि को खोलता और कभी बाँधता तो कभी केशर - कस्तूरी से उसके गात्र पर आलेखन करता था । कभी मधुर-मधुर प्रणयालाप से चेलना को समाकृष्ट बनाने मे आतुर रहता था । भयकर शिशिर ऋतु का समागम हो चुका था । उत्तरदिग्गामी शीतल पवन कलेजे मे ठिठुरन पैदा करने लगा । श्रीमत लोग अगीठी जलाकर, गात्र पर केशर आदि का विलेपन कर, शीतकालीन वस्त्रो को धारण कर, गर्भगृह मे बैठकर शीतकाल का समययापन करने लगे । परन्तु निर्धन लोग, जिनके लिए शिशिरकाल अभिशाप बन कर उपस्थित हुआ, पहनने-ओढने के वस्त्रो के अभाव मे बड़े, बूढे, बालक ठिठुर-ठिठुर कर बैठे-बैठे जाडे की राते व्यतीत कर रहे थे। घर मे रहे हुए दरवाजो के अभाव मे टाट-पट्टियो से छनकर आने वाली हवा कलेजे मे तीर की तरह चुभन पैदा कर रही थी । झुग्गी-झोपडियो मे रहने वाले लोग काल रात्रियो की तरह इन शीतकालीन रात्रियो को घास-फूस जलाकर जैसे-तैसे व्यतीत कर रहे थे। ऐसे शीतकाल की प्रचण्डता मे साधक - जीवन मे घोर परीषह पैदा होते हैं। मात्र 72 हाथ वस्त्र'' साधु के लिए और 96 हाथ वस्त्र 62 साध्वी के लिए रखने की भगवान् की आज्ञा है। इतने सीमित वस्त्र, रजाई - बिस्तर का परित्याग, पैर मे जूते-चप्पल पहनने का त्याग और किसी भी प्रकार की अग्नि का सेवन नहीं करना | 163 कितनी कठिन चर्या, तिस पर जैसा स्थान मिल जाये वहीं पर रहना और स्वय के लिए निर्मित आहार- पानी ग्रहण नहीं करना । अहो ! कितनी कृच्छ साधना है, परन्तु आत्माभिमुखी साधक देह पर रहे हुए ममत्व का परित्याग कर देता है। इसलिए वह शीतकालीन परीषह को समभावपूर्वक सहन करता हुआ अपनी निर्दोष सयमीचर्या का पालन करता है । इसी शिशिर ऋतु की कँपकँपाती ठंड मे विचरण करते हुए भगवान् महावीर पधारे। प्रभु के पधारने के समाचारो को श्रवण कर राजा श्रेणिक एव चेलना भगवान् को वदन-नमस्कार करने हेतु गये। जब वे प्रभु को वदन- नमस्कार करके पुन लौट रहे थे तो दोपहर व्यतीत हो चुका था । रास्ते मे उन्होने एक प्रतिमाधारी मुनि को उत्तरीय रहित जलाशय से कुछ दूर शीत की आतापना लेते हुए देखा। उन्हे देखकर श्रेणिक एव चेलना वदन- नमस्कार करने के लिए रथ से नीचे उतरते हैं और वदन- नमस्कार करके पुन रथारूढ होते हैं। ( रथ में) चेलना - अरे धन्य है। मुनिराज को जो इस भयकर शीतकाल मे आतापना ले रहे है । (क) उत्तरीय ओढ़ने का वस्त्र
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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