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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 111 लिए एक तिनका लिया और पूर्वोपार्जित लब्धि से रत्नो का ढेर कर दिया। मुनि नन्दीषेण रत्न ढेर कर लौटने लगे तो गणिका ने कहा-प्राणनाथ ! आप कहाँ पधार रहे हैं। आप चले जायेगे तो मैं अपने प्राणो का उत्सर्ग कर दूंगी। एक क्षण भी आपके बिना एकाकी रहने मे मैं समर्थ नहीं हूँ। यो विविध प्रकार से विलाप करती हुई अपने कटाक्षो से मुनि को वश मे कर लेती है। मुनि भी उसके प्रेम-पाश मे बधकर प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं प्रतिदिन दस व्यक्तियो को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या के लिए भगवान् महावीर के पास भेजूंगा और जिस दिन दस व्यक्ति तैयार नहीं होगे उस दिन पुन सयम ले लूंगा। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके सयम वेश का परित्याग कर गणिका के साथ भोग भोगने लगते हैं। नन्दीषण मुनि दस व्यक्तियो को प्रतिबोध देने के पश्चात् ही भोजन ग्रहण करते हैं। ऐसा करते-करते उनके एक दिन भोगावली कर्म क्षय हो गये। तब नौ व्यक्ति ही उनके प्रतिबोध से तैयार हुए। अत्यधिक प्रतिबोध देने पर भी दसवॉ व्यक्ति तैयार नहीं हुआ। इधर भोजन तैयार होने पर गणिका ने बुलावा भेजा, लेकिन नन्दीषेण अपना अभिग्रह पूर्ण नहीं होने से नहीं गये और वे सोनी को प्रतिबोध देने लगे। तब अत्यधिक देर होने से गणिका स्वय आई और बोली-स्वामिन! मैंने पहले रसोई तैयार की वो खराब हो गयी, पुन दुबारा भोजन बनाया वो नीरस हो जायेगा। इसलिए आप भोजन ग्रहण कर लो। नन्दीषेण ने कहा-नहीं, मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण न हो पाई, इसलिए मैं सयम अगीकार करूँगा। ऐसा कह कर नन्दीषेण भगवान महावीर के श्रीचरणो मे चले जाते हैं और आलोचना करते हुए सयम अगीकार कर लेते हैं।100 राजकुमार मेघ एव नन्दीषण अपनी सयमी यात्रा का आनन्दपूर्वक निर्वहन कर रहे है। भगवान् के चरणो मे सर्वतोभावेन समर्पित बनकर अपनी आत्मा पर लगे कर्मो का आवरण दूर करने मे तत्पर हैं और भगवान् महावीर ने राजगृह वर्षावास मे अनेक भव्यात्माओ को धर्म-पथ पर अग्रसर कर जीवन मे शाश्वत सुख पाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया । आत्मकल्याणकारी मार्ग बताकर भव्यात्माओ का उद्धार कर भगवान् महावीर समीपवर्ती क्षेत्र मे विचरण कर रहे है। राजगृह का सम्राट् श्रेणिक भगवान महावीर का अनन्य उपासक बन गया और महारानी चेलना तो विवाह पूर्व ही जिन-धर्मानुरागिणी थी लेकिन राजा श्रेणिक के चारित्र मोहनीय कर्म का प्रगाढ उदय था, जिसके कारण वह श्रावक व्रत भी अगीकार न कर सका। उसके मोहनीय कर्म का उदय था और भोगावली कर्म अवशिष्ट थे। इसलिए वह महारानी चेलना के प्रणय सूत्र में आवद्ध रहता था। वह (क) भोगावली-भोगने योग्य
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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