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भाग- द्वितीय
110 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, उसने माता-पिता से सयम ग्रहण करने की आज्ञा मांगी। माता-पिता ने अनेक युक्तियो से नदीषेण को समझाने का प्रयास किया, लेकिन जब वह नहीं माना तो माता-पिता ने सयम की अनुमति दे दी । तब आकाशवाणी हुई- नन्दीषेण । अभी तुम्हारे भोगावली कर्म अवशिष्ट हैं, अत कुछ समय गृहस्थ मे रहने के पश्चात् सयम ग्रहण करना ।
नदीषेण का वैराग्य भाव प्रबल था । उसमे लीन बना वह सोचने लगा- मेरा सकल्प दृढ है, मैं श्रेष्ठ चारित्र पर्याय का पालन करूँगा तो कर्म स्वत ही नष्ट हो जायेगे ।
पुन देववाणी हुई- नन्दीषेण ! तुम मेरी बात मान लो, मेरी भविष्यवाणी मिथ्या नहीं होगी ।
नन्दीषेण ने इस आकाशवाणी की उपेक्षा की और वह भगवान् के पास आकर सयम ग्रहण कर लेता है । किन्हीं - किन्ही आचार्यो की यह धारणा है कि नन्दीषेण को सयम लेने के लिए भगवान् ने मना किया, परन्तु प्रबल योग होने से उसने चारित्र अगीकार कर लिया । यह बात कम सगत लगती है, क्योंकि भगवान् तो प्रबल योग को जान ही रहे थे, फिर मना करने का कोई औचित्य नहीं दिखता ।
नन्दीषेण मुनि अब सयम मे सतत जागरूक रहने लगे । तपस्या से उन्होने अपने शरीर को कृशकाय बना लिया । वे तप-तेज से अत्यन्त तेजोमय शरीर वाले बन गये। लेकिन निकाचित भोगावली कर्मों का उदय होने वाला था । अब इन्द्रियों के विषय नन्दीषेण के मन को विह्वल बनाने लगे। तब सोचा- असयम मे जाने से सयम मे मरना अच्छा है, तब कभी वे शस्त्र से घात करने की सोचते तो देवता शस्त्र को धार रहित बना देते । जब अग्नि मे कूदते तो देवता उसे शीतल बना देते । पर्वत से गिरने का प्रयास करते तो देवता बचा लेते और कहते - नन्दीषेण । तुम्हारे निकाचित कर्मो का भोग अभी बाकी है और वह भोग तो तीर्थंकर भगवतो को भी भोगना पडता है । नन्दीषेण मुनि अब भी देवो की बात मानने को तैयार नहीं था ।
एक बार एकाकी विहार करने वाले नन्दीषेण मुनि बेले-बेले पारणा करते थे । बेले के पारणे मे एक दिन मुनि नन्दीषेण अनाभोग" दोष से प्रेरित होकर गणिका के भवन मे सयोगवश पहुँच गये और गणिका को सद्धर्म के लिए सम्बोधित किया । तब गणिका ने कहा- मुझे धर्म नहीं, धन चाहिए और वह मुनि की कृशकाया को देखकर खिलखिला कर हँस पडी । तब मुनि ने उसके उपहास को शात करने के
(ख) निकाचित - जिनका विपाकोदय होता, ऐमे कर्म
(क) कृशकाय - दुबला-पतला (ग) अनाभोग -अनजान