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________________ 108 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय था । तपस्वियो ने वृक्षो का सिचन करने से उसका नाम सेचनक रख दिया | वह सेचनक प्रमाणोपेत अगो वाला, सौम्य, सुन्दर रूप वाला, ऊँचे मस्तक वाला, सुखद स्कन्ध वाला था। उसका पिछला भाग वराह के समान नीचे झुका हुआ था। वह लम्बे उदर वाला, लम्बे होठ वाला एव लम्बी सूँड वाला था । उसकी पीठ खीचे हुए धनुष के समान आकृति वाली थी । सारे शरीर के अवयव गोल, पुष्ट एव प्रमाणोपेत थे | पूछ चिपकी हुई थी। पैर कछुए जैसे परिपूर्ण एव मनोहर थे। बीसो नाखून श्वेत, निर्मल, चिकने एव निरुपहत थे । उसके उज्ज्वल दॉत निकलने लगे थे । शनै शनै तरुणाई को प्राप्त वह अत्यन्त सुन्दर दिखने लगा । एक बार वह तरुण सेचनक हस्ती नदी के तीर पर पानी पीने के लिए गया । सयोग से उसे वहाँ आपगा के तट पर वह यूथपति हस्ती दिखाई दिया। तब सेचनक ने देखा, यह कहाँ से आया है? इसके साथ युद्ध करना चाहिए और यूथपति ने सोचा कि यह दूसरा हस्ती कहाँ से आया? इसके साथ युद्ध करना चाहिए। दोनो परस्पर युद्ध करने लगे। सेचनक अतीव बलशाली था । उसने दाँतो के स्वल्प प्रहार से यूथपति को मार डाला और स्वय यूथ का मालिक बन गया । एक दिन उसने विचार किया कि मेरी माता ने जैसे कपट करके मुझे आश्रम मे रखा, बडा होकर मैंने मेरे पिता को मार डाला, वैसे ही कोई सगर्भा हथिनी इस आश्रम मे कपट से किसी हाथी को रखेगी तो वह भी मुझे मार डालेगा इसलिए इस आश्रम को ही नष्ट कर देना चाहिए । यही सोच वह तपस्वियो के आश्रम को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा । जहाँ जन्मा, जिन तपस्वियो ने अपने हाथो से कौर देकर जिसे बडा किया, जिन तपस्वियो ने उसकी निरन्तर परिचर्या की, आज वह उन तपस्वियों के आश्रम को अपनी मृत्यु को रोकने के लिए छिन्न-भिन्न कर रहा है । मृत्यु ! उसे तीर्थंकर भगवान् भी रोक नहीं पाये । उसे कौन रोक सकता है। वह तो शाश्वत सत्य है लेकिन आश्चर्य है कि मरणशील प्राणी भी मरना नहीं चाहता और अमर बनने के लिए किस-किस प्रकार प्रयास कर लेता है । वह सेचनक अब तपस्वियों के लिए कष्टदायी बन गया । प्रतिदिन आश्रम की शोभा को छिन्न-भिन्न करने लगा । यहाँ तक कि तपस्वियो का रहना भी दुष्कर हो गया। तब अन्यन्त खिन्न होकर तपस्वी राजा श्रेणिक के पास पहुँचे और उन्होने सम्राट् से निवेदन किया- राजन् ! एक हस्ती सर्व-लक्षणो से सम्पन्न राजकार्यो मे काम आने योग्य है । वह मदोन्मत्त बना आश्रम को छिन्न-भिन्न कर रहा है। यदि आप उसे यहाॅ ले आते हैं तो राज्य की शोभा मे भी चार चाँद लग जायेगे और हम तपस्वी भी सुख-शातिपूर्वक अरण्य में निवास करेगे । (क) वराह- सूअर (ख) निरूपहत - रोगादि से मुक्त
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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