________________
104 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय चक्खुप्रदाता भगवान् महावीर :
__ मेघ मुनि ने अपने सस्तारक पर शयन करना प्रारम्भ किया, लेकिन रात्रि के प्रथम प्रहर मे अनेक साधु वाचना लेने के लिए, प्रश्न पूछने के लिए, धर्मकथा के लिए उस दरवाजे से कोई आता है, कोई जाता है, इसके पश्चात् कोई परठना करने के लिए आ रहा है, कोई जा रहा है। अन्तिम प्रहर मे भी वाचनादि के लिए कोई आ रहा है, कोई जा रहा है। इस प्रकार उस द्वार से रात्रि-भर साधुओ का निर्गमन एव प्रवेश होता रहा। तब जाता-आता कोई साधु मेघ मुनि का सघट्टा करता है, कोई उल्लघन करता है। कोई पैर पर टक्कर लगाता है, कोई हाथ पर, कोई मस्तक पर, उसके शरीर पर पैरो की धूलि से रजकण ही रजकण हो गये। रात्रि मे वह क्षण-भर भी सो न सका। अब मेघ मुनि का मन ग्लानि से भर गया। चितन किया ओह ! जब मैं गृहवास मे था तब सभी मुनि मेरा आदर-सत्कार करते थे, लेकिन आज रात्रि मे अहह | मुनियो ने मेरा घोर अपमान किया है। एक क्षण भी मुझे सोने नहीं दिया। मैं इस तरह साधु जीवन का पालन नहीं कर सकता। प्रात काल होने पर मुझे पुन गृहवास में जाना उचित है। इस प्रकार आर्त भावो से रात्रि व्यतीत होने पर सूर्योदय के पश्चात् मेघ मुनि भगवान् को वदन-नमस्कार करके पर्युपासना करने लगे।
प्रभु बोले-मेघ । तुम्हारे मन मे मुनियो के कारण ऐसे विचार उत्पन्न हुए हैं कि मैं प्रात काल होने पर घर चला जाऊँगा। क्या यह सत्य है?
मेघ-हॉ भते।
भगवान्-मेघ इससे पहले अतीत के तीसरे भव का तुम स्मरण करो। जब तुम वैताढ्य पर्वत की तलहटी पर सुमेरुप्रभ नामक हस्ति थे। सुडौल, सुगठित, बलशाली शरीर वाले एक हजार हाथियो के स्वामी तथा अनेक हस्ति कलभों पर आधिपत्य करते हुए उनका रक्षण करते हुए, स्वामित्व और नेतृत्व कर रहे थे।
तुम अनेक हथिनियो और उनके बच्चो के साथ विविध प्रकार की क्रीडाएँ करते हुए वैताढ्य पर्वत की तलहटी मे घूमते हुए आनन्द का अनुभव करते थ। एक बार ग्रीष्म ऋतु के ज्येष्ठ मास मे भीषण गरमी मे पत्तो की रगड से भयकर दावाग्नि लग गयी। तब अनेक पशु-पक्षी भयभीत होकर इधर-उधर दौडने लगे। उस समय तुम भी भयकर गर्जना करते हए हथिनियो एव हस्ति कलभो के साथ दौडने लगे। दौडते-दौडते तुम सबसे बिछुड गये। प्यास के मारे तुम्हारे (क) सस्तारक-ढाई हाथ प्रमाण शय्या, विछोना, दर्भ या कम्बल का विछोना (ख) निर्गमन-निकलना (ग) हस्ति कलभ-हाथी का बच्चा (घ) दावाग्नि-जगल मे लगने वाली आग