________________
तत्त्वार्थाशिवा
पुनः सूत्रकार ने कहा है कि आठ अन्य अनुयोगद्वारों के आधार पर भी सम्यग्दर्शन के बारे में विशेष ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। सत् अर्थात् अस्तित्व, संख्या अर्थात् भेद, क्षेत्र अर्थात् वर्तमानकालीन निवास, स्पर्शन अर्थात् तीनकाल विनिवास, काल अर्थात् मुख्य और व्यवहारकाल समय की मर्यादा, अन्तर अर्थात् विरहकाल, भाव अर्थात् अपशमिकादि भाव, अल्पबहुत्व अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिकता का ज्ञान । सम्यगञ्चति इति एति सम्यगस्ति जो पूर्ण रूप से भली प्रकार से गमन करता हो वह सम्यक् है । तस्य भावः तत्त्वं इति प्रशस्तिः उसका भाव सम्यक्त्व है। ऐसी प्रशस्ति है, जोकि जब अपनी पूर्ण दशा पर पहुँच जाता है तब उस समय मुक्तिमय स्वतन्त्रता रूप होता है, किन्तु अपूर्णदशा में मुक्ति का मार्ग कहलाता है।
कारण-कार्यता अथवा निमित्त-नैमित्तिकता पर्यायों में होती है। द्रव्यों में नहीं। द्रव्य किसी का कारण है न किसी का कार्य । निश्चयनय अभिन्न को विषय करने वाला है। व्यवहारनय भिन्न को अथवा भेद को विषय करता है। अनादिकालीन मिथ्यात्व से तत्वो का अन्यथा श्रद्धान होता है और इसका अन्यथापन मिटकर तथापन आ जाना ही सम्यक्त्व है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का अर्थ लोटापन और खरापन समझना चाहिए। और को और मानने लगना मिथ्यात्व है तथा वस्तु स्वरूप को जैसे का तैसा मानना सम्यक्त्व है।
यह सम्यग्दृष्टि जीव लोकपथ में स्थित होते हुए भी यद्यपि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका है फिर भी चारित्रमोह का अंश इसकी आत्मा में अभी विद्यमान है। इसलिए इसकी प्रकृति /चर्या जैसी होनी चाहिए थी वैसी अभी नहीं हो पाई है । यद्यपि यह ज्ञान चुका है कि यह शरीर मेरी आत्मा से भिन्न है तथा जितने भी ये माता-पिता, पुत्री पुत्रादि रूप सांसारिक नाते हैं वे शरीर के साथ हैं तथापि शरीर के नातेदारों को ही और लोगों की भाति अपने नातेदार समझते हुए उनके साथ में वैसा ही बर्ताव किया करता है, तो भी अपनी उस तात्त्विक श्रद्धा को नहीं खोता है, बल्कि इस व्यावहारिक वेष्टा को श्रद्धा के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है। जैसे सोने की डली कीचड़ में गिरकर भी जग को प्राप्त नहीं होती, जबकि लोहा जंग को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि सासारिक वातावरण में रहकर भी समार के कार्यों में पूरी तरह उस प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।
-
जघन्यता और उत्कृष्टता की अपेक्षा सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है - सराग और वीतराग । आत्माधीन ज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये निश्चल - निर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य सम्पद्यते पराधीनेन्द्रियजनितज्ञानसुखविलक्षणं स्वाधीनातीन्द्रियरूपपरमज्ञानसुख - लक्षणं निर्वाणम् । सरागचारित्रात् पुनर्देवासुरमनुष्यराज्यविभवजनको मुख्यवृत्त्या विशिष्टपुण्यबंधो भवति परम्परमा निर्वाणं चेति ॥ (ता. वृत्ति )
वीतराग सम्यग्दर्शन से साक्षात् निर्वाण और सराग सम्यग्दर्शन से परम्परा से निर्वाण की प्राप्ति होती है। सरागदशा में सम्यग्दृष्टि को भी सत्कर्मचेतना तथा कर्मचेतना होती है, किन्तु वीतरागदशा में ज्ञानचेतना होती है।
श्रद्धान, ज्ञान, आचरण में वस्तु भेद नहीं है। आत्मा में दर्शन, ज्ञान, चारित्र से विवेचना मात्र की जाती है। ये तीनों आम, नींबू, नारंगी की भांति भिन्न-भिन्न नहीं हैं। ये तीनों आत्मा का परिणाम हैं जो आत्मा के साथ अनुस्यूत है । अग्नि को समझाने के लिए दाहकपन, पाचकपन और प्रकाशकपन के द्वारा समझाना होता है। इन गुणों में से तीनों या किसी एक गुण में कमी आने पर दूसरों में भी उस कमी का प्रभाव होता है और अग्नि में स्वयं में भी कमी आ जाती है। यह सम्यक्त्व गुण नहीं है, किन्तु उन गुणों की मिथ्यात्व के समान अथवा सम्यग्मिथ्यास्त के समान अवस्था विशेष है। यह चतुर्थ गुणस्थान में प्रकट होता है। धीरे-धीरे सुधरते सुधरते यह चौदहवें गुणस्थान में जाकर अपनी पूरी ठीक