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44/कार्या-निक
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स्थिति में पहुँचता है। वह आत्मसुधार दो तरह से होता है एक यत्नसाध्य और दूसरा उसके अनन्तर अनायास रूप से होने वाला | चतुर्थ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक आत्मा प्रयत्नवान् होता है, वह व्यवहारमोक्षमार्ग कहा जाता है। मागे सहजभाव से निजोम गुणों की वृद्धि करता है तब निश्चयमोक्षमार्ग पर आरूढ़ कहा जाता है। चतुर्थ गुणस्थान में जब सम्यक्त्व प्रकट होता है तो ज्ञानावरणीय को भी विशिष्ट क्षयोपशम होता है जिससे गुरु की वाणी या तत्त्वों के स्वरूप को ठीक से ग्रहण कर पाता है।
संसार की ओर बल रखने वाली क्रिया अशुभ और मुक्ति की ओर बल रखने वाली क्रिया शुभ होती है। जिसमें कि बुद्धि पूर्वक सम्यग्दृष्टि जीब प्रवृत्त होता है यही उसका सरागपना है। तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों गुणों में परम उत्कृष्टत्व हो जाता है। ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में श्रुतज्ञान भावश्रुतज्ञान हो जाता है, जिसकी संतान यथाख्यात चारित्र है। सिद्ध अवस्था में दर्शन और चारित्रमोह दोनों के नाश से सम्यक्त्व गुण प्रकट होता है। अतः दोनों दर्शनमोह और चारित्रमोह कथंचित् एक हैं और जब एक है तो चारित्रमोह के सद्भाव में सम्यक्त्व में अवश्य ही कुछ कमी होती है इसलिए सम्यक्त्व के सराग और वीतराग दो भेद किए गए हैं जो वास्तविक हैं। ज्ञानचेतना वीतरागी के ही होती है। चेत्यते अनुभूयते उपयुज्यते इति चेतना । यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान वाले का ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है किंतु राग भाव के कारण अज्ञान चेतना होती है।
तत्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित सूत्र -
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तनिसर्गादधिगमाद्वा ।
अ. 1 सू. 1
अ. 1 सू. 2 अ. 1 सू. 3
अ. 1 सू. 4
अ. 2. सू. 1
अ. 2 सू. 3
अ. 6 सू. 13 अ. 6 सू. 21
अ. 6 सू. 24 दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता... ...... तीर्थकरत्वस्य ।
अ. 7 सू. 23 शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसा: संस्तवा: सम्यग्दृष्टेरतीचारा: । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।
अ. 8 सू. 1
अ. 8 सू. 9
जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
औपशमिक क्षायिक भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।
सम्यक्त्वचारित्रे |
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।
सम्यक्त्वं च ।
दर्शनचारित्रमोहनीयकषायाकषायवेदनीयाख्यास्त्रि- नवषोडशभेदाः . क्रोधमानमायालोभाः । दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनलाभौ ।
अ. 9 सू. 14
अ. 9 सू.45 सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजक...
अ. 10 सू-4 अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ।
इस प्रकार सरागसम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन की प्रारम्भिक अवस्था है जो उत्तर उत्कृष्ट अवस्था अर्थात् वीतरागसम्यग्दर्शन का कारण है। वीतराग- सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लक्ष्य पूर्वक सरागसम्यग्दर्शन की साधना यही
. क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।