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________________ 42/माय क्षायोपशमिक पर्याप्तक अपर्याप्तक दोनों के होता है। औपशमिक पर्याप्तक के ही होता है। अपर्याप्तक के नहीं । मनुष्यनियों के तीनों ही होते हैं किन्तु पर्याप्तक मनुष्यनियों के ही होता है, अपर्याप्तक के नहीं। देवमति में पर्याव अपर्याप्त दोनों प्रकार के देवों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों के तीनों की देवांगनाओं के और सौधर्म - ईशान में उत्पन्न देवियों के क्षायिक नहीं होता शेष दो होते हैं और वे भी पर्याप्तक अवस्था में ही होते हैं। इन्द्रिय मार्गणा में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। अन्य जीवों के कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता है। कायमार्गणा में सकायिक जीवों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य के नहीं। योगमार्गणा में तीनों योगों वाले के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अयोगी के एक क्षायिक ही होता है। वेदमार्गणा में तीनों वेद वाले के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अवेदी के औपशमिक और क्षायिक दो ही होते हैं। ज्ञानमार्गणा के अनुसार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीवों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु केवलज्ञानी के केवल एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। संयममार्गणा के अनुसार सामायिक - छेदोपस्थापना संयत जीवों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं । परिहारविशुद्धि संयतों के औपशमिक के अलावा शेष दो होते हैं। सूक्ष्मसापराय और यथाख्यात संयतों के औपशमिक व क्षायिक होते हैं। दर्शनमार्गणा से चक्षु, अचक्षु व अवधिदर्शन वालों के तीनों होते हैं । केवलदर्शन वाले जीवों के केवल क्षायिक सम्यक्त्व होता है। लेश्यामार्गणा के अनुसार छहों लेश्या वाले के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। लेश्यारहित के क्षायिक ही होता है। earerणा में भव्य के तीनों सम्यक्त्व होते हैं, किन्तु अभव्य के एक भी नहीं। सम्यक्त्वमार्गणा में जहाँ जो सम्यग्दर्शन है, वहाँ वही समझना चाहिए। संज्ञामार्गणा में संज्ञी के तीनों, असंज्ञी के एक भी नहीं। संज्ञारहित के क्षायिक सम्यग्दर्शन है। आहारकमार्गणा में आहारकों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। अनाहारक छद्यस्थों के भी तीनों होते हैं, किन्तु समुद्घातगत केवली व अनाहारकों के एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। साधन दो प्रकार का है - अभ्यन्तर और बाह्य। अभ्यन्तर साधन कर्मों का क्षय, क्षयोपशम व उपशम है । बहिरंग साधन नारकियों के चौथे से पहले-पहले तीसरे तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, वेदनानुभव है। चौथे से सातवें तक जातिस्मरण, वेदनानुभव है। तिर्यंचों में जातिस्मरण, धर्मश्रवण एवं जिनबिम्बदर्शन बाह्य साधन हैं। मनुष्यों में जातिस्मरण, धर्मश्रवण एवं जिनमहिमा दर्शन सम्यग्दर्शन उत्पत्ति के साधन हैं। देवों के जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमा दर्शन एवं देवर्द्धि दर्शन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था आनतकल्प से पूर्व तक है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देवों के देवर्द्धिदर्शन को छोड़कर तीन दर्शन पाये जाते हैं। नौ ग्रैवेयिकों में सम्यग्दर्शन का साधन जातिस्मरण और धर्मश्रवण है। अधिकरण दो प्रकार का है - अभ्यन्तर और बाह्य । जिस सम्यग्दर्शन का जो स्वामी है वही उसका अभ्यन्तर अधिकरण है। बाह्य अधिकरण त्रसनाड़ी है। औपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है। साविक की संसारी जीव के जधन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष अन्तर्मुहुर्त कम दो पूर्व कोटी तेतीस सागर है। मुक्त जीव के आदि-अनन्त है। क्षायोपशमिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त व उत्कृष्ट छ्यासठसामर है। भेद की अपेक्षा सामान्य एक है। उत्पत्ति की अपेक्षा निसर्गज व अधिगमज दो भेद हैं। कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा तीन - औपक्षमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक तीन भेद हैं। सम्यग्दर्शन शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है, श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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