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को मिलाकर सातकृतियों के उपशम से उत्पन्न होने वाले सम्बग्दर्शन को औपशामिक सम्यग्दर्शन कहते हैं जैसे का मादि दव्य के सम्बन्ध से जल में कीचड़ उपशम हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रकट न होना उपशम है । सम्बावृष्टि के दर्शनमोहनीय का अन्तरकरण उपशम होता है और अनन्तानुबन्धी चतुक का अनुवक रूप उपशम होता है। अपुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त होती है। उक्त सातों प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से उत्पन्न सम्यग्दर्शन क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। उक्त प्रकृतियों में से प्रकृतियाँ सम्यग्दर्शन की सर्वघाती प्रकृतियों के उदयाभावीक्षय तथा सववस्था रूप उपशम और शेष देशघाती सम्यक्प्रकृति के उदय से उत्पन्न सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। सम्यक्प्रकृति के उदय के कारण इस सम्यग्दर्शन में चल, मल, अगाढ आदि दोष लगते हैं। यह सम्यग्दर्शन औपशमिक और क्षायिक जैसा निर्मल नहीं होता है। अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्व प्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । औपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। क्षायिक सम्यग्दर्शन की स्थिति अनन्तकाल होती है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्कृष्ट स्थिति 66 सागर एवं जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है । आत्मानुशासनकार ने सम्यग्दर्शन के 10 भेद भी कहे हैं।
वेदक या क्षयोपशम सम्यग्दर्शन सराग अवस्था में ही होता है, किन्तु शेष दो सम्यग्दर्शन सराग व वीतराग दोनों अवस्थाओं में होते हैं। चारित्रमोहनीय के क्षय से होने वाली वीतरागता क्षायिक सम्यग्दर्शन के ही सदभाव में होती
सराग सम्यग्दर्शन प्रशम, सवेग, अनुकम्पा एव आस्तिक्य लक्षण वाला होता है । आत्मविशुद्धि रूप वीतराग सम्यग्दर्शन होता है। सराग सम्यग्दर्शन व्यवहार सम्यग्दर्शन व भेद सम्यग्दर्शन एकार्थक हैं। इसी प्रकार वीतराग सम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्दर्शन भी एकार्थवाची हैं। आगम में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारणभूत पांच लब्धियों में एकदेशनालब्धि कही गई है । आचार्य के द्वारा दिए गए तत्त्वों का उपदेश ग्रहण देशनालब्धि है। जिस जीव को जीवादि पदार्थ विषयक उपदेश वर्तमान पर्याय या पूर्वपर्याय में नहीं मिला है उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु जिस जीव को ऐसे उपदेश का निमित्त मिल गया उसको तत्काल या कालान्तर में चिन्तन के क्षणों में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है। जो सम्यग्दर्शन तत्काल उपदेश के निमित्त से होता है उसको अधिगमज एवं जो कालान्तर में हो उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस प्रकार उत्पत्ति की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के दो भेद होते हैं। इन दोनों में सात प्रकृतियो के क्षय, उपशम या क्षयोपशम की अपेक्षा रहती है।
सम्मत्तस्मणिमित्तं विणसुखं तस्स जाणिमो पुरिलो।
अंतरहेदू भणिय सनमोहस्स बयपहुडी ।। -नियमसार सूत्रकार द्वारा निर्दिष्ट छह अनुयोगद्वार - निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकार, स्थिति और विधान के आधार से सम्यग्दर्शन का वर्णन किया जा रहा है।
जीवादि पदार्थों का प्रदान करना सम्यग्दर्शन है- ऐसा कथन निर्देश है। सम्यग्दर्शन किसके होता है ? सामान्य से जीव के, विशेष सेमरकगति में सब पृथिवीयों में पर्याप्तकनारकियों के मापशमिक और क्षायोपशामिक होता है। पहली पृथ्वी में पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियों के मापशामिक और बायोपशामिक होता है। तिर्यंचगति में पर्याप्तक के औपशामिक होता है,सायिक और बायोपशामिक पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों के होता है। निर्वचनी के क्षायिक नहीं होता । औपशमिक और क्षायोपशमिक पर्याप्तक तिर्थचनी के होता है अपर्याप्तक के नहीं। मनुष्यगति में माविक और