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याधात्म्य ज्ञान होना सम्यन्जान है। संसार के कारणभूत राग-द्वेषादि की निवृत्ति के लिए कृत-संकल्प विवेकी पुरुष की बाह एवं आभ्यन्तरक्रियाओं का रुक जाना ही सम्यक्चारित्र है।
जान, दर्शन करण साधन हैं। चारित्र शब्द कर्म साधन है। जिस शक्ति विशेष से आत्मा जीवादि पदार्थों को जानता है उस शक्ति विशेष को ज्ञान कहते हैं। जिस शक्ति विशेष के सन्निधान से आत्मा जीवादि पदार्थों को देखता है या श्रद्धान करता है उसको दर्शन कहते हैं । आचरण को चारित्र कहते हैं । ज्ञान व जीव आत्मा में कथंचित् भिन्नता तथा कथंचित् अमित्रता है। अविभक्त कर्तृक, करण उष्णता की अग्नि से और ज्ञान की आत्मा से पृथक् सत्ता नहीं है।
सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः इसमें मोक्षमार्ग के प्रति परस्पर अपेक्षा की प्रधानता होने से इतरेतरयोग द्वन्द्वसमास है। इस सूत्र में मोक्षमार्ग के प्रति इन तीनों की प्रधानता है किसी एक की नहीं। अत: द्वन्द्वसमास का प्रयोग किया गया है। तीनों की प्रधानता होने से बहुवचनान्त का प्रयोग किया गया है। क्योंकि परस्पर सापेक्ष सम्यग्दर्शनादि तीनों की सहितता ही मोक्ष के प्रति प्रधान है, एक या दो की नहीं।
प्रशंसा सूचक बचन सम्यक् शब्द का अन्वय, दर्शनादि तीनों के साथ होता है। समानाधिकरण होने पर भी बहुवचन मोक्षमार्ग: में नहीं है। मिथ्याज्ञान से बन्ध होता है। अतः सम्यग्ज्ञान से मोक्ष होता है। सांख्य कहता है कि जब सतोगुण की वृद्धि होती है तो मोक्ष होता है और विपर्यय से बन्ध होता है, ऐसा साख्य का मत है। रसायन के समान सम्यग्दर्शनादि तीनों में अविनाभावसम्बन्ध है। तीनों के समग्रता के बिना मोक्ष नहीं हो सकता है। सराग सम्यग्दर्शन साधन है, वीतराग सम्यग्दर्शन साधन व साध्य दोनों है।
प्रस्तुत सूत्र ग्रन्थ का मुख्य नाम तत्त्वार्थसूत्र है। इस नाम का उल्लेख करने वाले टीकाकार हैं । यथा - इति तत्वाची सर्वार्षसिदिसंजिकायो ... दक्षाध्याये परिच्छिन्ने तत्वार्षे पठिते सति ........ ।
जैनदर्शन में बताया है 'सम्बन्पानिज्ञानपारिवाणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। केवल तत्व या केवल अर्थ पदं न रखकर तत्त्वार्थ पद क्यों रखा है ? तत्त्वार्थ शब्द दो शब्दों से बना है। अर्थ का अर्थ द्रव्य या वस्तू है। उस द्रव्य का भाव तत्त्वार्थ कहा जाता है। अपने-अपने स्वरूप के अनुसार पदार्थों का जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है।
तत्व सात होते हैं - जीब, अजीव, आम्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष । संसार में जीव की अवस्था अनादि से अशद बनी हुई है। उसी के कारण जीव दुःखी है। दुःख के कारण आसव और बन्ध है। शुद्धदशा अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के कारण संवर-निर्जरा है। वे अशुद्ध दशा रूप रागादिक ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होने से जीवादिक के पूर्ण परिझान में बाधक है। सम्यादृष्टि जीव विवेक के कारण उन्हें कर्मोदयजन्य रोग के समान समझता है और उनकों दूर करने की बराबर इच्छा रखता है एवं बेष्ट करता है। इसी से जिनशासन में उन रामादिक के निषेध पर प्रारम्भ में उतना जोर नहीं दिया जितना कि मिथ्यादर्शन के उदय में होने वाले रामादिक पर दिया है। सरागचारित्र के धारक श्राक्कों एवं मुनियों में ऐसे ही रायका सदभाव विवक्षित है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि न तो एक मात्र वीतरागता हो जैनधर्म है औरन जैनशासन में राग का सर्वथा निषेध ही निर्दिष्ट है।
सम्यग्दर्शन सामान्यतया एक होकर भी विशेषतया भेद वाला होता है। सम्यग्दर्शन सरागवीतराग के भेद से दो प्रकार का होता है। सम्यग्दर्शन के उपशम आदि तीन भेद भी होते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृति मिथ्यात्व, सम्पम्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति तथा चारित्रमोहनीय की चार प्रकृति अनन्तानबन्धी क्रोख, मान, माया, लोभ इन सब