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होने पर निर्भर करता है। ज्ञान और चारित्र वास्तव में श्रद्धान के अनुगामी होते हैं। श्रद्धान समीचीन होने पर ज्ञान तो उसी क्षण सम्यग्ज्ञान हो जाता है, किन्तु चारित्र जो पहले मिथ्या चारित्र था अब मिव्याधारित्र तो नहीं रहता और सम्यारि भी नहीं हो जाता अपितु वह अचारित्र की दशा को प्राप्त हो जाता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में अपनी आत्मा के स्वभाव का श्रद्धान नहीं रहने के कारण और शरीर में ही आत्मप का श्रद्धान होने के कारण शरीर और इन्द्रियों में व इन्द्रिय भोगों में पूर्ण आसक्ति रहती है और उसके आगे शरीर और इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले पदार्थों में राम और अप्रिय पदार्थों में द्वेष बुद्धि उत्पन्न होने लगती है, किन्तु आत्मा के वास्तविक चेतनात्मक स्वरूप की श्रद्धा हो जाने पर शरीर और इन्द्रिय भोगो में वैसी आसक्ति नहीं रहती, जैसी पहले थी अपितु अनासक्ति होना प्रारम्भ हो जाता है। समीचीन श्रद्धा अब आचरण को समीचीन बनाने की ओर प्रयासरत होने लगती है।
अनादिकालीन मिथ्याचारित्र के दृढ़ संस्कारों के कारण शीघ्र सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होना कभी-कभी कठिन हो जाता है और उसमें कुछ समय लगना संभव हो सकता है। मिथ्या श्रद्धान की दशा में इन्द्रिय-भोगों को भोगने और रामद्वेष रूप कषाय भावों को अपनाने में अपना हित समझते हुए आनन्द मानता था और आत्मा के हित के कारण वैराग्य, ज्ञान एव तप की साधना में कष्ट का अनुभव करता था, किन्तु अब वस्तु तत्त्व के समीचीन स्वरूप की श्रद्धा प्राप्त होने पर दृष्टि बदल जाती है। अब दृष्टि मोक्ष की ओर हो जाती है। दुःखनिवृत्ति रूप मोक्ष प्राप्त करना जीवन का उद्देश्य बन जाता है। मोक्ष रूप कार्य के प्रति जितने भी दार्शनिक है वे लगभग एकमत हैं। दुःख की निवृत्ति को सभी मोक्ष मानते है, परन्तु कारण के प्रति सभी एकमत नहीं है। मार्ग के प्रति विवाद है। नैयायिक सम्यग्दर्शन, सम्यक्वारित्र रहित ज्ञान से मोक्ष मानते हैं। योगदर्शन ज्ञान व वैराग्य से मोक्ष होना मानता है। पदार्थों के अवबोध को ज्ञान कहते हैं। विषय-सुख की अभिलाषाओं के त्याग को वैराग्य कहते हैं। मीमासक क्रिया से मोक्ष मानता है। सर्व कर्मों के नाश रूप सामान्य मोक्ष मे विवाद नहीं है। यद्यपि मोक्ष के स्वरूप सम्बन्ध में भी सभी पूर्णतः एकमत नही है। बौद्ध मोक्ष को आत्मा के अभाव के रूप मे मानते हैं । सांख्य प्रकृति और पुरुष का भेद विज्ञान होने पर चैतन्य स्वरूप अवस्था का नाम मोक्ष मानता है । ज्ञेयाकार से विपरीत चैतन्य के स्वरूप को मोक्ष मानता है। वैशेषिक आत्मा के बुद्धि सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार आदि गुणों के अत्यन्त उच्छेद को मोक्ष कहते हैं। तथापि कर्मबन्धन या दुःखमुक्ति के सामान्य लक्षण में किसी का विवाद नही है। ससार रूपी घटीयत्र की निवृत्ति ही मोक्ष है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप अग्नि से जले हुए कर्मोदय का अभाव हो जाने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है।
आश्वासन के लिए पहले मोक्ष के कारणों को कहा है। अनादिकाल से बधा हुआ मनुष्य मोक्ष के कारण जानकर आश्वस्त हो जाता है। कारागृह में पड़ा हुआ व्यक्ति उससे छूटने का उपाय जानकर आश्वासन को प्राप्त होता है। वह आशान्वित हो बधन मुक्ति का प्रयास करता है। मिथ्यावादियों के द्वारा प्रणीत ज्ञान मात्र से या दर्शन या चारित्र मात्र से या ज्ञान, चारित्र इन दो से मोक्षमार्ग का निषेध करने के लिए प्रथम मोक्षमार्ग का कथन किया गया है। वस्तुत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का सुमेल रूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है।
टीकाकार आचार्य अकलंकदेव के अनुसार यहाँ कोई शिष्य एवं आचार्य का सम्बन्ध विवक्षित नहीं है किन्तु संसार सागर में निमग्न अनेक प्राणियों के उद्धार करने की पुण्य भावना से प्रेरित होकर तथा मोक्षमार्ग के उपदेश बिना हितोपदेश दुष्प्राप्य है ऐसा विचार कर करके मोक्षमार्ग की व्याख्या करने के इच्छुक आचार्य उमास्वामी ने इस सूत्र की रचना की है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में अन्तरंग कारण सात प्रकृतियों का क्षय, उपवास या क्षयोपशम होता है। इसकी पूर्णता कहीं निसर्ग से होती है, कहीं अधिगम अर्थात् परोक्ष से । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के दो भेद हो जाते हैं। जीवादि पदार्थों का