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38/सस्वार्थमा निकर
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सम्यग्दर्शन का स्वरूप एवं साधन
* पं. मूलचन्द लुहाडिया
तत्त्वार्थसूत्र जैनदर्शन व साहित्य का प्रथम संस्कृत सूत्र ग्रन्थ है । सूत्र ग्रन्थ होने से विषय प्ररूपणा में विस्तार के अभाव में हमें ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय को ठीक से समझ पाने के लिए परवर्ती टीकाग्रन्थों पर ही निर्भर होना पड़ेगा। टीकाकार अकलंकदेव के अनुसार संसार-सागर में निमग्न अनेक प्राणियों के उद्धार करने की पुण्य भावना से प्रेरित होकर तथा यह विचार करके कि मोक्षमार्ग के उपदेश के बिना जीव अपना हित नहीं कर सकते हैं, मोक्षमार्ग की व्याख्या करने के इच्छुक आचार्य उमास्वामी ने इस सूत्रग्रन्थ की रचना की । आचार्य उमास्वामी महाराज ने ग्रन्थ के प्रथम प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शनशान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' द्वारा मोक्षमार्ग का अत्यन्त युक्तियुक्त एव निर्दोष लक्षण प्ररूपित किया है। सूत्र का अर्थ है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का सुमेल रूप रलत्रय ही मोक्षमार्ग है। विभिन्न दार्शनिकों द्वारा मोक्ष के उपाय का अलग-अलग रूप में प्ररूपण मिलता है। कोई केवल भक्ति से, कोई ज्ञान से और कोई क्रिया से मोक्ष होना मानते हैं। वास्तव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों की समग्रता ही मोक्ष का उपाय है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इस क्रम का कारण यह है कि इनमें पूर्व की प्राप्ति होने पर ही उत्तर की प्राप्ति भजनीय रहती है। अर्थात सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर सम्यग्ज्ञान भजनीय रहता है और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सम्यक्चारित्र भजनीय रहता है।
उपर्युक्त मोक्ष के कारण रूप रत्नत्रय में प्रथम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन का लक्षण आगे के सूत्र में आचार्यदव ने कहा है - 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' तस्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। तत्त्वार्थ में दो शब्द हैं। तस्व और अर्थ | अर्थ पदार्थ अथवा द्रव्य को कहते हैं। उस पदार्थ का भाव तत्व कहा जाता है। अस्तु पदार्थ के समीचीनसवरूप का प्रधान सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन की यह परिभाषा तर्कसंगत और निर्दोष है। यह सम्यग्दर्शन होने पर उपलवज्ञान स्वत: सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के जीवन में अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव में सामान्य शारित्रिक सुधार भी हो जाता है। सम्यग्दर्शन का सकारात्मक प्रभाव ज्ञान और चारित्र पर पड़ता है। ऐसे आत्मा में सम्यग्दर्शन की उत्पति के साथ ही एक दृष्टि से रत्नत्रय की उत्पत्ति हो जाती है और मोक्षमार्ग पर गमन प्रारम्भ हो जाता है। ज्ञात के संख्यात्मक विकास में तो ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम कारण होता है किन्त ज्ञान की गणात्मकता में अर्थात उसके समीचीन होने का मिथ्या होने में सम्यग्दर्शन के सद्भाव अथवा अभाव की ही एक मात्र भूमिका रहती है। जो ज्ञान मिथ्यात्व के सद्भाव में मिथ्या ज्ञान बना हुआ था वही ज्ञान सम्यग्दर्शन प्रकट होते ही सम्यग्ज्ञान बन जाता है। ज्ञान में यह महत्वपूर्ण गुणात्मक परिवर्तन सम्यग्दर्शन के कारण हो जाता है। तत्त्वों के स्वरूप की विपरीतता के कारण ज्ञान में उस सत्त्व के सम्बन्ध में स्वरूप विपर्यास, कारण विपर्यास एवं भेदाभेद विपर्यास बना रहता है । उक्त प्रकार के विपर्यास का तस्व श्रद्धान के समीचीन होने पर अभाव हो जाता है और तत्त्व के स्वरूप कारण और भेदाभेद के सम्बन्ध में समीचीन ज्ञान हो जाता है। हम गहराई से विचार करें तो पायेगे कि जीवन का विकास और विनाश समीचीन तत्त्वद्धान के होने और उसके न *बुहादिया सबन, जयपुर रोड, किशनगढ़ (अजमेर) 1643-242038