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तत्वार्थसूल में रत्ननय की विवेचना
___ * डॉ. सुरेशचन्द जैन
_ 'जाती जातौ यद् उत्कृष्टं तद् तद् रत्नमिह उच्यते ।' जो जो पदार्थ अपनी-अपनी जाति में उत्कृष्ट है उन्हें रल कहा जाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आत्म गुणों में सर्वोत्कृष्ट हैं अत: उनको भी रत्नत्रय कहा जाता है। जैन परम्परा के साथ-साथ अन्य सभी भारतीय परम्पराओं के चिन्तन का केन्द्रबिन्दु जन्म-मरण की शृंखला से छुटकारा पाना रहा है । बौद्ध परम्परा की हीनयान शाखा को छोड़कर ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं ने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए अपने-अपने दृष्टिकोणों से जन्म-मरण की शृंखला से छुटकारा पाने का उपाय ढूंढ़ा है । जैन परम्परा
प्रति अनन्य रूप से आस्थावान है। तीर्थकरों, आचार्यों ने जन्म-मरण की शंखला से छटने के उपाय के रूप में जो कुछ भी निर्दिष्ट किया है उसका आधार और केन्द्रबिन्दु रत्नत्रय है अर्थात् 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र का यह प्रथम सूत्र उपर्युक्त भाव का निदर्शक सूत्र है। ... तत्वार्थसूत्र (मोशशास्त्र) का सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषय इस सूत्र के इर्द-गिर्द ही विवेचित है । जीव-अजीव
रणा का प्रतिफलन सूत्र के यथार्थ बोध और तदनुसार आचरण पर निर्भर है। प्राणिमात्र दु:ख से मुक्ति का अभिलाषी है और तदनुरूप प्रवृत्ति भी पायी जाती है। दुःख से मुक्ति क्षणिक और आत्यन्तिक दोनों प्रकार की होती है। क्षणिक दुःखमुक्ति का आभास तो प्राय: सभी सासारिक प्राणियों को होता है, परन्तु आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि साधक स्व-स्वभाव में स्थित न हो जाय । रव-स्वभाव में बाधक तत्व है आवरणकर्म । यदि आवरण का क्षय हो जाय तो स्वभाव तो सत्-चित्-आनन्द रूप ही है। यही आत्यन्तिक सख है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर कर्मोपाधि नहीं लग सकती।।
. इतना ही नहीं, वहाँ स्वाभाविक सुख प्रतिबन्धक कारणों से निराकृत होने के कारण चिरन्तन रूप हो जाता है। वस्तुत: सहज सुख की अभिव्यक्ति कहीं बाहर से नहीं आती, बल्कि वह तो आत्मीक स्वाभाविक गुण है, जो कर्मावरण से आवृत्त होने के कारण व्यक्त नहीं होता है। प्रकारान्तर से सहज सुखात्म स्वभाव उन्मेष मात्र है। यही मोक्ष है। मोक्ष की अवस्था अभावात्मक नहीं, अपितु स्व-भावात्मक या आत्मलाभ रूप है।
. रत्नत्रय इसी आत्मलाभ रूप अवस्था को प्राप्त करने का साधन है। सूत्रकार ने सम्यग्दर्शन, जान, चारित्र को मोक्षमार्ग निरूपित किया है। जैसे पूर्व-पूर्व से उत्तरोत्तर का उन्मेष सम्भव है उसी प्रकार उत्तरोत्तर से पूर्व-पूर्व का अस्तित्व १. राजवार्तिक - 10/2/3/11/1 - मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययसोपरायिकर्मततातावनादी ध्यानानलनिग्धकर्मबीजे भवाइरोल्पादाभावामोश
• २.धमाला 6-1.9.9.216.-......दुःखहेतुकर्मणां विनष्टत्वात् स्वास्थ्यलक्षणस्य संखस्य जीवस्य स्वाभाविकरणम्त ।
- * सम्पादक, अल प्रचारक, बिल्ली,