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________________ / 31 तो जीवन की सार्थकता समाधिमरण के बिना नहीं होती सो करुणावत आचार्य ने सातवें अध्याय के अंत में सल्लेखना धारण करने का उपदेश दिया है और उसके अतीचार बताकर निर्दोष समाधिमरण करने की प्रेरणा रत्नत्रय के साधक और मन Hend तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ के आठवें अध्याय में बंधतत्त्व का विवेचन करते हुए बंध के पांच कारण बताये गये हैं । मिष्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । रत्नत्रय के मार्ग में लगा हुआ सम्यम्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थान में मिथ्यादर्शन से तो छुटकारा पा चुका होता है परन्तु अविरति आदि बंध के चार कारण वहाँ उपस्थित हैं। पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती के लिये भी बंध के चारों कारण हैं, विशेष इतना है कि अविरति वहाँ अपनी समग्रता में नहीं रहती । साधक को वहाँ श्रावक के व्रत या देश-संयम की उपलब्धि हो जाती है। छठवें गुणस्थान से महाव्रतों का सद्भाव अविरति चले जाने से ही रहता है। सातवें गुणस्थान में प्रमाद भी नहीं रहता । shareit तो दसवें गुणस्थान तक बध कराते रहते हैं। उसके बाद तेरहवें गुणस्थान तक मात्र योग ही बंध का हेतु रहता है। वहाँ बंध एक समय मात्र का है, कषाय के अभाव में योग से होने वाला आसव सूखी दीवाल पर पड़ी रेत की तरह तुरंत झड़ जाता है। चौदहवें गुणस्थान में बंध का सर्वथा अभाव है। बारहवें गुणस्थान में रत्नत्रय पूर्णता को प्राप्त कर मोक्ष की साक्षात् कारण बन जाता है। आठवें अध्याय में आचार्य भगवत ने प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बध का व्याख्यान करते हुए आठ कर्मों की एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियों का विवेचन किया है और उनका पाप पुण्य रूप विभाग भी किया है। कषाय सहित आ जब तक जीव को होता है तब तक आने वाले कर्म प्रदेशों का बटवारा प्रतिसमय आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों होता रहता है इस दृष्टि से यह विवेचन समझना उपयोगी है। के प्रकरण में मुझे यह भी कहना है कि तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में जीव के जो पाच भाव बताये हैं उनमें औदयिक भाव ही बंध में कारण बनते हैं । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव बंध के कारण नहीं हैं । आगम में जहाँ भी सम्यक्त्व को या संयमासंयम को बध का कारण कहा है वहाँ उसके काल में होने वाले बंध को विवक्षा से कहा है । वास्तव में वे बध के कारण नहीं हैं। बध तो उस काल में होने वाले रागादिक औदयिक भावों से ही होता है। आव और बंध की तरह निर्जरा भी जीव के प्रतिसमय होती रहती है। परंतु मोक्षमार्ग में संवरपूर्वक होने वाली निर्जरा ही कार्यकारी है अत: आचार्य भगवंत ने नवमें अध्याय में संवर और निर्जरा दोनों तत्वों का विवेचन कर दिया है। रत्नत्रय का साधक जैसे-जैसे अपनी साधना में आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे कर्म निर्जरा भी उसके अधिक होती है। तभी तो सत्ता में पड़े सागरों पर्यन्त की स्थिति वाले कर्मों को नष्ट कर साधक रत्नत्रय के माध्यम से संसार से मुक्ति पा लेता है। मोक्ष का संक्षिप्त सा वर्णन दसवें अध्याय में किया गया है। atter का अविनाभावी ऐसा बहुमूल्य रत्नत्रय मुझे प्राप्त हो इसलिये मैं चाहता हूँ - जिने भक्तिर्चिने भक्तिर्जिने भक्तिः सदास्तु मे । भक्तिः ते भक्तिः सुते भक्तिः सदास्तु मे 1 मुझे भक्तिरो भक्तिर्गुरो भक्तिः सदास्तु मे । क्योंकि जिनेन्द्र भक्ति से सम्यग्दर्शन, श्रुतभक्ति से सम्यग्ज्ञान और गुरु भक्ति से सम्यक्चारित्र की प्राप्ति सहज ह हो जाती है और यही तीन मिलकर रत्नत्रय बनते हैं जो मोक्ष का हेतु है।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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