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________________ 30/ हैं। आगे इकतीसवें सूत्र "मतियुतानामो विपर्ययस्य" में बताया कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मिथ्या भी होते हैं । १५ जीव तत्व कह देने मात्र से हम जैसे मंदबुद्धि लोग जीव का सही स्वरूप नहीं समझ पाते, हिंसा से विरत नहीं हो पाते और सम्यग्दर्शन से वंचित रह जाते। इसलिये आचार्य महाराज ने संसारी जीवों की समस्त अवस्थाओं का वर्णन करने के लिये दूसरा, तीसरा एवं चौथा अध्याय और लिखा। इन अध्यायों का विस्तार से विवेचन टीकाकार आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में किया है। प्रतिपक्ष के ज्ञान बिना भी पदार्थ का सही ज्ञान नहीं हो पाता, अतः जीव को समझने के लिये अजीव को जानना भी आवश्यक है। अजीव तत्त्व समझाने के लिये ग्रन्थ में पांचवां अध्याय लिखा गया। इसमें उमास्वामी महाराज ने छह द्रव्यों की चर्चा करते हुए पाच अजीव द्रव्यों का विशेष व्याख्यान किया। उसमें भी पुद्गल द्रव्य का विस्तार से विवेचन है क्योकि पुद्गल ही हमारी इन्द्रियों का विषय बनता है और पुद्गल के संसर्ग के कारण ही हम संसार में भटक रहे हैं। यह कठिनाई भी है कि ऐसे सूक्ष्म पुद्गल हमारी भटकन के विशेष कारण हैं जो हमारे इन्द्रियगोचर ही नहीं हैं। उनका स्वरूप समझे बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता । आचार्यों ने उपयोग के तीन भेद बताये हैं। शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुभोपयोग । शुद्धोपयोग प्राप्त कर सकें ऐसा क्षेत्र - काल तो हम पुण्यहीन जीवों को मिला ही नहीं हैं। अशुभोपयोग अविरोध रूप से ससार का ही कारण है । शुभोपयोग हमारे उत्थान में सहायक हो सकता है परंतु उसे भी सर्वथा हेय मानने की बातें आजकल सुनने को मिलती हैं। । विचारणीय है कि आचार्य उमास्वामी भगवंत ने जब छठवें अध्याय में तीसरे तत्त्व आस्रव की सम्पूर्ण विवेचना कर दी तब आस्रव तत्त्व समझाने के लिए उन्हें एक और अध्याय लिखना आवश्यक क्यों लगा । तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की टीकाओं का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सातवें अध्याय में। शुभाम्रव की विवेचना करते हुए सम्यक्चारित्र की बात प्रारंभ की गई है। यद्यपि शुभास्रव भी बंध का ही कारण है परंतु अशुभ आम्रव से बचने के लिये मोक्षमार्ग में इसकी उपयोगिता आचार्यों ने स्वीकार की है। ससार बढ़ाने में कारण पड़ने वाले अशुभोपयोग से बचने का एकमात्र कारण भी शुभोपयोग ही तो है। उस शुभोपयोग को भी सर्वथा हेय मानकर हम छोड़ देंगे तो शुभोपयोग तो चलता ही रहेगा। बिना उपयोग के तो हम ससार में एक समय भी न रहे हैं और न रह सकते हैं। सातवें अध्याय में उमास्वामी भगवत ने सम्यक्चारित्र की चर्चा प्रारंभ करते हुए पहले ही सूत्र "हिंसावस्तेथाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्” में यह स्पष्ट कर दिया कि पाँच पापों का बुद्धिपूर्वक त्याग करने वाला ही व्रती है। दूसरे सूत्र "देशसर्वतोऽणुमहती" के माध्यम से व्रत के अणुव्रत और महाव्रत रूप दो भेद भी बता दिये हैं। व्रतों की पांच-पांच भावनाओं का विवेचन करके उनके माध्यम से व्रतों के निर्दोष पालन करने की प्रेरणा दे दी और पापों से बचने के लिये "दुःसमेव वा" लिखकर यह चेतावनी भी दे दी कि ये पांच पाप दुःखरूप ही हैं। अध्याय के ग्यारहवें सूत्र "मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्व गुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु" में आचार्य महाराज ने मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ रूप चार भावनाओं का वर्णन भी कर दिया जो पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक की पहचान । व्रती के अगारी और अनगारी दो भेद बताने के बाद उन्होंने तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप सात शील व्रतों का स्वरूप समझाया है तथा व्रतों में लगने वाले संभावित अतीचारों से सावधान किया है। इस अध्याय में वर्णित उपदेश से देशव्रत का सम्यक् पालन हो सकता है और महाव्रतों की शिक्षा भी मिलती है।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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