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अभाव में वह सराम रहेगा और तराय शामिक सम्वृष्टि न तो पूर्ण ज्ञान प्राप्तकर मुतवली हो सकता है और नी केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष जा सकता है । यद्यपि सम्यग्दर्शन होते ही ज्ञान सम्यक् हो जाता है और सम्यक ज्ञान की अल्पता की सोशमार्ग में बाधक नहीं है । परंतु केवलज्ञान की प्राप्ति चार घातियां कर्मों के नष्ट हुए बिना नहीं होती और जन कर्मों के नाश में वीतराम चारिक ही कारण बनता है। अतः तीनों की एकता वाला रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है।
आचार्यो मे सम्यग्दर्शन की चारित्र के साथ विषम व्याप्ति स्वीकारी है। उन्होंने चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरल सम्यग्दृष्टि को न तो रत्नत्रयधारी माना है और न ही मोक्षमार्गी । आचार्यों के स्पष्ट विवेचन के बाद भी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि को शुद्धोपयोगी या स्वरूपाचरण चारित्र वाला मानना तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' की भावना के विपरीत है ।
तत्त्वार्थसूत्र 357 सूत्रों का लघु ग्रन्थ होते हुए भी इतना महत्त्वपूर्ण है कि उस पर अनेक विज्ञ आचार्य भगवंतों ने विशद टीकाओं की रचना की है। जैसे आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि, आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक, आचार्य योगीन्द्रदेव ने तस्वप्रकाशिका, आचार्य अभयनन्दि ने तस्वार्थवृत्ति, आचार्य विद्यानन्दि ने श्लोकवार्तिक, आचार्य भास्करनन्दि ने सुखबोधटीका, आचार्य श्रुतसागर ने तत्त्वार्थवृत्ति आदि । आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने गन्धहस्ति महाभाष्य नाम से वृहत् टीका की रचना की थी जो हमें उपलब्ध नहीं है। उसकी एकमात्र हस्तलिखित प्रति किसी विदेशी ग्रन्थालय की शोभा बढ़ा रही है।
तत्त्वार्थसूत्र थोड़े से पाठभेद के साथ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी मान्य है अत: हरिभद्रसूरि और सिद्धसेनगणि जैसे श्वेताम्बर आचार्यों ने भी इसकी टीकायें की हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रायः सभी टीकाकारों ने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का विवेचन करने वाले तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का प्रमुखता से विवेचन किया है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक होना आवश्यक है इसमें मनुष्य होने की कोई शर्त नहीं है। चारों गतियों में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है। मनुष्य, देव और नारकी तो संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। तिर्यंचों में सज्ञी पंचेन्द्रिय पशु सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। कौनसी गति में सम्यग्दर्शन प्राप्ति के कौन-कौन से कारण हैं इसका विवेचन तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की सर्वार्थसिद्धि एवं अन्य टीकाओं में प्रथम अध्याय के सातवें सूत्र 'निर्देश - स्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः' में किया गया है। विशेषता यह है कि धर्मश्रवण को चारों गतियों में मम्यग्दर्शन प्राप्ति का कारण माना है। इससे धर्मश्रवण की उपयोगिता सिद्ध होती है। श्रावकों को प्रयास पूर्वक धर्मश्रवण के अवसर जुटाने चाहिये ।
ज्ञान तो ज्ञान ही है, उसमें सम्यक् और मिथ्या विशेषण तो ज्ञानधारी जीव के कारण लगते हैं। यदि जीव सम्यग्दृष्टि है तो सात तत्वों पर दृढ श्रद्धान होने से उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान माना जाता है और सम्यक्त्व के अभाव में वह मिथ्याज्ञानी कहलाता है । दूसरे सूत्र में ही तत्त्वार्थद्धानं सम्यग्दर्शनम् लिखकर आचार्य महाराज ने स्पष्ट कर दिया है तत्त्वों के वास्तविक अर्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। चौथे सूत्र में यह भी बता दिया कि तत्त्वार्थ से उनका आशय मोक्षमार्ग में कार्यकारी श्रीवादि सात तत्वों के वास्तविक अर्थ से है। उक्त सात तत्त्व समझाने के लिये ही दस अध्यायों में तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है।
ज्ञान की चर्चा आचार्य उमास्वामी भगवंत ने तत्त्वार्थसून के प्रथम अध्याय में नौवे सूत्र से तैतीस सूत्र तक की । इसमें ज्ञान के सभी भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन है। नौवें सूत्र "मतिमुक्तावचिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्" में ज्ञान के पांच नाम बताकर अगले तीन सूत्रों में स्पष्ट कर दिया कि सम्यग्ज्ञान प्रमाण है और उसके परोक्ष व प्रत्यक्ष दो भेद