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________________ 28/सस्वार्थमा-निक सम्बग्दर्शन-ज्ञान-त, इन बिन मुकति न हो। अपने आत्म स्वरूप में श्रद्धा, अपनी आत्मा का ही स्वसंवेदन ज्ञान और अपनी आत्मा में ही निश्चल स्थिति रूप अभेद अर्थात निर्विकल्प रत्नत्रय को निश्चय मोक्षमार्ग और सात तत्वों के श्रद्धान रूप सच्चे देव, शास्त्र व गुरु के श्रद्धान रूप, स्व-पर भेदविज्ञान रूप आदि भेद वाला सविकल्प रत्नत्रय व्यवहार मोक्षमार्ग माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द भगवंत ने रत्नत्रय की परिभाषा करते हुए लिखा है - सम्मत सार्ण भावाणं तेमिमधिगमो णाणं । चारित समभावो विसबेस विगतमागाणं ॥ सम्यग्दर्शन पहले होता है, उससे मोक्षमार्ग का द्वार खुलता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ही जीव के ससार की अनंतता नष्ट हो जाती है। अब उसे किसी भी स्थिति में अर्धपुद्गल परावर्तन काल से अधिक ससार में नहीं रहना । अत: सम्यग्दर्शन को प्रमुखता देकर उसकी बहुत प्रशंसा तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य भगवंतों ने की है। आगम में अन्यत्र भी सम्यग्दर्शन को पूज्य माना गया है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन को कर्णधार कहा है - दर्शन शानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते । दर्शन कर्णधार तन्मोजमार्ग प्रचक्षते ॥ सम्यग्दृष्टि जीव की उपलब्धियों की भी प्रशंसा की गई है। दृढ श्रद्धान के कारण उसके आचरण में ऐसी विशेषता आ जाती है कि वह इकतालीस प्रकृतियों का अबंधक हो जाता है। फिर भी चारित्र के अभाव में वह सम्यग्दर्शन अकेला मोक्ष का कारण नहीं बनता। पंडित दौलतराम जी ने छहढाला की तीसरी ढाल में सम्यग्दर्शन की भूरि-भूरि प्रशसा की है, उसे मोक्षमहले की प्रथम सीढ़ी कहा है। उक्त प्रशंसा पढ़कर कोई सम्यग्दर्शन मात्र को मोक्षमार्ग न मान ले इसलिये चौथी ढाल की पहली पंक्ति में ही लिख दिया - 'सम्यकपा धार पनि सेवाह सम्यजान'। उन्होंने सम्यग्ज्ञान की प्रशंसा में भी कह दिया । मान समान नमान जगत में सुबको कारण' । परंतु ज्ञान की प्रशंसा में आठ छंद लिखने के बाद पडितजी ने लिखा'सम्यग्ज्ञानी होम बहुरि विठ पारित सीचे । इस प्रकार पृथक्-पृथक् प्रशंसा करके भी मोक्षमार्ग में तीनों की एकता अनिवार्य बता दी। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है। औपशमिक सम्यग्दर्शन तो अन्तर्मुहर्त के लिये ही होता है, क्षायोपथमिक सम्यग्दर्शन अन्तर्मुहर्त से लेकर छियासठ सागर तक रह सकता है और क्षायिक सम्यग्दर्शन कभी नष्ट नहीं होता, वह तो अनन्तकाल तक रहता है। सम्यग्दर्शन के सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन रूप दो भेद भी हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणों के द्वारा जो अभिव्यक्त होता है वह सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मविशुद्धि ही जिसमें प्रमुख है वह वीतराग सम्यग्दर्शन है, ऐसा आचार्य भास्करनन्दि ने तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवृत्ति टीका में कहा है। ___ आचार्य भगवंतों ने स्पष्ट किया है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में भी हो सकता है परंतु महावतों के १. समयसार, 150. २.रल. श्राव.31
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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