________________
तस्25
'जीत' के वर्णन से सम्बन्धित है। अध्याय पांच में 2 सूत्र हैं जिनमें मुख्य रूप से अजीब तत्व का वर्णन किया गया है। इसमें पुद्गल आदि अजीव द्रव्यों का भी वर्णन है। छठवें और सातवें अध्याय में भी क्रमशः 57 और 36 सूत्र हैं। ये दोनों ही अध्याय आसवं तत्व से सम्बन्धित हैं। छठवें अध्याय में आसव का स्वरूप तथा माठों कर्म के आसव के कारण बताये गये हैं। जबकि सातवें अध्याय में शुभास्रव का वर्णन है। जिसमें बारह व्रतों का समावेश मिलता है। श्रावकाचार का वर्णन भी इस अध्याय के सूत्रों में देखा जा सकता है। आठवें अध्याय में 26 सूत्र हैं। इनमें बन्धतत्व का वर्णन है । बन्ध की स्थिति और कारणों के भेदों का वर्णन भी इसमें किया गया है। नवम अध्याय में 47 सूत्र हैं। जिनमें संवर और निर्जरा की अत्यन्त सुन्दर विवेचना देखने को मिलती है। निर्ग्रन्थ मुनियों के स्वरूप का वर्णन भी इस अध्याय में किया गया है। इस प्रकार प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया गया और नवम अध्याय में सम्यक्चारित्र का वर्णन हुआ है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मोक्षमार्ग वर्णन पूर्ण होने के उपरान्त दसवें अध्याय में नौ सूत्रों के द्वारा 'मोक्षतस्व' का वर्णन आचार्य उमास्वामी ने किया है।
अतः सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 'तस्वार्थसूत्र' में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्र के रूप में मोक्षमार्ग, प्रमाण-नय-निक्षेप, जीव-अजीवादि सात तत्त्व, ऊर्ध्व-मध्य-अधो इन तीन लोक, चार गतियों, छह द्रव्य और द्रव्य-गुण- पर्याय इन सबका स्वरूप आ जाता है। इस प्रकार आचार्य उमास्वामी जी ने 'तस्वार्थसूत्र' में तत्वज्ञान का अपरिमित भण्डार भर दिया है।
श्रमण संस्कृति के अनुसार 'जैनधर्म' गुणवादी है व्यक्तिवादी नहीं। वह व्यक्ति को नहीं वरन् उसके अन्दर के गुणों को ही श्रेष्ठ मानता है। इसीलिए 'श्रमणसंस्कृति' में पुरुषार्थ को विशेष महत्त्व दिया गया है। जीवन के चार पुरुषार्थों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में 'मोक्ष' के लिए ही प्रधान पुरुषार्थ माना गया है। 'मोक्ष' अर्थात् संसार के परिभ्रमण से मुक्ति । जन्म-मरण के सतत् चक्र में चलते रहने से विराम की स्थिति को प्राप्त करना । विराम 'मोक्ष' है गतिमान संसार है । 'विराम' की स्थिति तक ले जाने के लिए इन सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आसव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष) को जीवन में उतारने, तथा उनका पथिक बनने की सतत् क्रिया है 'तत्त्वार्थसूत्र' । जिसने इसे सच्चे अर्थों में देखकर चेतन रूप में स्वीकार कर लिया और फिर उसके क्रियात्मक रूप को जीवन में धारण कर लिया उसका जीवन से मुक्त होना सुनिश्चित है । मुक्ति के लिए अन्दर का दर्शन शुचितापूर्ण होना चाहिए। क्योंकि सारा खेल तो अन्दर का है। बाह्य रूप अर्थात् बाना, वाणी और क्रिया तो आन्तरिक परिवर्तन के प्रेरित रूप हैं। अतः जिसका अन्तस् संवर गया उसका जीवन सम्हल गया। और जिसका अन्तर बिगड़ गया उसका सब कुछ नष्ट हो गया। क्योंकि बाह्य रूप तो मिथ्यात्व है मिथ्यात्व का भ्रम टूटे और अन्दर की शुचिता का विस्तार हो 'तत्त्वार्थसूत्र' का सच्चे अर्थों में यही सार है।
'तत्त्वार्थसून' का अपरनाम 'मोक्षशास्त्र' भी है । 'मोक्ष' अर्थात् 'मम' का 'अय' । 'मोक्षमार्ग' का रास्ता, प्रशस्त करने के लिए 'मम' का 'क्षय' अपरिहार्य है। इसके लिए सम्यक्त्व की आवश्यकता होती है । 'सम्यक्' यहाँ 'सत्य' का प्रतीक है और 'मिथ्या' असत्य का । सम्यक् मोक्ष का मार्ग है, मिथ्या संसार का मार्ग है। संसारी प्राणी नाना प्रकार के विकल्पों में अपनी श्रद्धा बनाये रखता है इसलिए वह आत्मा को भूल जाता है। वह बाहरी पदार्थों को अपना मान लेता है। उसे यह भ्रम हो जाता है कि मैं ही कर्ता हूँ। फिर वह जड़ पदार्थों का भोक्ता बनकर अपने जीवन को नष्ट कर लेता है। यही 'मिथ्यात्व' प्राणी मात्र के लिए 'मोक्ष' से विलग होने तथा संसार में भटकने के लिए बाध्य करता है। संसार के जीव यदि दुःखी हैं तो केवल मिथ्यात्व के कारण। इस 'मिथ्यात्व' को दूर करने का एक ही उपाय है वह है 'सम्यग्दर्शन' । अर्थात् वस्तु के स्वभाव को सत्य रूप में जानना । वस्तु के सत्य रूप का बोध होने पर 'मम' का क्षय होने लगता है। इसके