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सम्पूर्ण जैनागम का सार : तत्त्वार्थसून
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डॉ. के. एल. जैन
तत्त्व + अर्थ = तत्त्वार्थ । 'तत्व' का आशय है जो श्रेष्ठ, शुभ और उपयोगी है वह 'तत्त्व' है। 'अर्थ' का आशय - शब्द में अन्तर्निहित भाव की भूमि । 'सूत्र' का आशय है- संकेत / ऐसे संकेत जिनमें अर्थ की गरिमा का गाम्भीर्य विद्यमान हो ।
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इस प्रकार 'सत्त्वार्थसूत्र' से तात्पर्य है इस सृष्टि में जो कुछ श्रेष्ठ, शुभ और उपयोगी है, उसमें अन्तर्निहित भाव की भूमि को ऐसे संकेतों के द्वारा समझना जिनमें अर्थ की गरिमा का गाम्भीर्य विद्यमान हो ।
आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित 'तत्त्वार्यसूत्र' में सम्पूर्ण जैनागम का सार समाहित है। इसमें जैनधर्म के उन सूत्रों की विस्तृत विवेचना की गई है जिसे अपनाकर कोई भी सांसारिक प्राणी इस ससार से 'मुक्ति' को प्राप्त कर सकता है, इसलिए 'तत्त्वार्यसूत्र' का अपरनाम 'मोक्षशास्त्र' भी है। भारतीय दर्शन में अन्तिम पुरुषार्थ को 'मोक्ष' माना गया
| 'मोक्ष' का तात्पर्य है 'मम' का 'क्षय' । अर्थात् जब प्राणी मात्र के 'अहं' का पूर्ण रूप से 'क्षय' हो जाय तब उसके 'मोक्ष' का मार्ग स्वयमेव ही प्रशस्त हो जाता है।
जैन परम्परा में 'तत्त्वार्थसूत्र' का महत्त्व सर्वमान्य है। जिस प्रकार हिन्दुओं में गीता, ईसाइयों में बाईबिल और मुसलमानों में कुरान का महत्त्व है। ठीक उसी प्रकार से जैनों में 'तस्वार्थसूत्र' का महत्त्व है। इसके कर्ता आचार्य उमास्वामी है। आचार्य उमास्वामी श्री कुन्दकुन्दाचार्य जी के प्रमुख शिष्य थे। वे विक्रम सम्वत् दूसरी शताब्दी मे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। जैन आगमों में 'तस्वार्थसूत्र' की रचना सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में हुई। इस शास्त्र का विस्तार और विवेचन करने के लिए अनेक टीकाएँ लिखीं गई। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक और अर्थप्रकाशिका इसी शास्त्र की टीकाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि बालक से लेकर महापण्डितों तक केलिए यह शास्त्र उपयोगी है। आचार्य उमास्वामी जी ने इसकी रचना इतनी आकर्षक ढंग से की है कि अत्यल्प शब्दों में ही 'जैनागम' के सारस्वरूप को संग्रहीत कर दिया है। इस शास्त्र को पढ़ने से पथ-भ्रान्त संसारी जीव 'मोक्षमार्ग' की यात्रा तय कर सकता है। इसके प्रारम्भ में ही सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता को 'मोक्षमार्ग' बतलाया है। अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।
'तत्त्वार्थसूत्र' को आचार्य उमास्वामी जी ने दस अध्यायों में विभक्त किया है। इस ग्रन्थ में कुल 357 सूत्र हैं। प्रथम अध्याय में 33 सूत्र हैं इनमें मुख्य रूप से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों की एकता को मोक्षमार्ग का रूप बतलाकर इनका विस्तार से विवेचन किया गया है। दूसरे अध्याय में 53 सूत्र हैं जिनमें जीवतत्त्व का वर्णन है। इसमें मुख्य रूप से जीव के भाव, लक्षण और शरीर के साथ जीव के सम्बन्ध का वर्णन किया गया है। तीसरे और चौथे अध्याय में क्रमशः 39 और 42 सूत्र हैं। इन दोनों ही अध्यायों में संसारी जीवों के रहने के स्थान तथा अधो, मध्य, ऊर्ध्व इन तीनों लोकों का वर्णन है साथ ही साथ नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा देव इन चार मतियों का विवेचन किया गया है। इस तरह प्रथम चार अध्याय * आचार्य / अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, नूतन बिहार कॉलोनी, टीकमगढ