________________
-
इसके साथ ही पं. सुखनाल संघवी जी ने अपनी तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में तीन-चार टीकाओं का उल्लेख किया
हैं। जिनकत्ता के नाम बापाच मनमगिरि, पिरतनान, बापक शौविषय और गणों का विवाह । गणि यशोविजय कृत टिप्पण की विशेषता निदर्शित कराते हुए आपने सूचना दी है कि जैसे वाचक यशोविजय आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने अष्टसहनी जैसे दिगम्बर-ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी हैं वैसे ही गणी यशोविजय ने भी तस्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य दिगम्बर सूत्रपाठ पर मात्र सूत्रों का अर्थपूरक टिप्पण लिखा है और टिप्पण लिखते हुए उन्होंने जहाँ-जहाँ श्वेताम्बरदिगम्बर मतभेद या मतविरोध आता है वहाँ सर्वत्र श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ही अर्थ किया है। सूत्रपाठ दिगम्बर होते हुए भी अर्थ श्वेताम्बरीय है।"
___ यह संभवतः सर्वप्रथम गुजराती की तस्वार्थसूत्र पर उपलब्ध होने वाली टीका है। जिसका नाम लेखक ने बालावबोध दिया है।
तत्त्वार्थसूत्र पर जिस प्रकार संस्कृत भाषा में भाष्य या वृत्तियों का निर्माण हुआ है उसी प्रकार इनके अनुवाद/ रूपान्तरण हिन्दी, गुजराती, मराठी, उर्दू, कन्नड, तमिल जैसी अन्य भारतीय भाषाओं एवं अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में भी उपलब्ध होते हैं। इनमें कितने ही विवेचन महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे - अंग्रेजी अनुवाद में जे. एल. जैनी, डा. नथमल टाटिया का या प्रो. एस ए. जैन का । हिन्दी में पं. सदासुखदास जी की अर्थप्रकाशिका या पं. सुखलाल संघवी का सूत्रार्थ विवेचन या पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री का विवेचन । इस तरह सभी भाषाओं निबद्ध होने वाले तत्त्वार्थसूत्र एवं उनकी टीकाओं की संख्या अर्द्धशतक के आसपास तक होगी, जो कि उसकी प्रसिद्धि के मानक ख्यापित करती है।
इस प्रकार जैन वाङ्मय के विशाल भण्डार में तत्त्वार्थसूत्र जितना महनीय ग्रन्थराज है उतनी ही उनकी टीकायें/ भाष्य/वृत्तियाँ सुबोधप्रद एवं विविधपूर्ण हैं। जिनके अभ्यास जैनागम, दर्शन एवं संहिता जैसे विविधविषयों की पर्याप्त जानकारी हासिल की जा सकती है।
यह कहना भी उचित ही होगा कि तत्त्वार्थसूत्र पर प्राप्त टीकाओं की बहुलता एवं विविधता ने ही तत्त्वार्थसूत्र को महनीय से महनीयतम बना दिया है। जैसे कि सोना सुगन्ध सहित मिल गया हो । तथा प्रत्येक टीकाएं शिखर पर सुशोभित होने वाले एक से बढ़कर एक कलश की तरह दैदीप्यमान हैं। ऐसी अमर कृति जैन साहित्य के भण्डार की श्रीवृद्धि करती हुई जयवन्त रहे।
-
-
१. सस्वार्थसून, प्रस्तावना, पृ. ३८-९,