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द्वारा वास्तविक ज्ञान की प्रतीति होने लगती है। यह वास्तविक ज्ञान ही प्राणी मात्र का चेतन तत्व है जिसे हम "सम्मान' कह सकते हैं। जब वस्तु के यथार्थ स्वरूप को चेतना द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तब उसके अनुरूप माचरण की बात बाती है। ऐसा आचरण जो अन्तर्बाह्य की दृष्टि से एक रूप हो, यही सम्यक्चारित्र है। अतः यह कहा जा सकता है कि वस्तु के यथार्थ स्वरूप को चेतन तस्व द्वारा स्वीकृत करने के उपरान्त उसी के अनुरूप आचरण करने पर प्राणी मात्र अपने यन्तव्य के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। यह गन्तव्य है 'मोक्ष' अर्थात् मुक्ति / स्वतन्त्रता | ऐसी स्वता जो सभी प्रकार की माकुलताओं से रहित हो। और जब किसी प्राणी में किसी तरह की आकुलता नहीं रहती वही 'सच्चा सुख' है। और इस सुख को केवल वही सच्चा वीतरागी प्राप्त कर सकता है जिसने दर्शन, ज्ञान, चारित्र के 'सम्यक्' स्वरूप के मर्म को समझ लिया है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि जो जीव 'आत्मा' में रुचि रखता हो और जिसने आत्मा के यथार्थ ज्ञान को भली-भाँति जान लिया हो और फिर वह अपने उस आत्म रूप में स्थिरता से रमण करने लगे। ऐसा वीतरागी ही 'आत्मा' के सच्चे सुख की अनुभूति प्राप्त कर मोक्षमार्ग का पथिक बन सकता है। मोक्षमार्ग का तात्पर्य है 'आत्मा की शुद्धि' का मार्ग। यही सच्चे अर्थों में जैनदर्शन का सार रूप है।
इस संसार में जिसने भी धर्म हैं - हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम आदि सभी धर्मों में जीवतत्त्व के लिए 'मुक्ति' की कामना की गई है। मुक्ति 'जीव' का अन्तिम लक्ष्य है। लेकिन सभी धर्म 'मुक्ति' की बात को अपने-अपने ढंग से कहते हैं। प्रायः सभी धर्मो का मानना है कि जीव का कल्याण परमात्मा की भक्ति में है। उसके द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों को आचरण में उतारने में है। उसकी भक्ति का मूल प्रयोजन उसके गुणों को आत्मसात् करना है। ऐसा करने पर ही आत्मा का विस्तार संभव है। प्रायः सभी धर्मों के दर्शन आत्मा को परमात्मा का प्रतीक मानते हैं। अर्थात् सभी प्राणियो के अन्दर जीवतत्त्व परमात्मा का अंश है। इस आत्मा को 'ज्ञान' के द्वारा चेतन स्वरूप प्रदान कर उसे विस्तार दिया जा सकता है। जैनदर्शन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने 'आत्मा' को सच्चे अर्थों में उच्च पद प्रदान किया है। 'आत्मा' का विस्तार यदि यह जीव चाहे तो उस सीमा तक कर सकता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाय। जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जिसने आत्मा को परमात्मा बनने का मौलिक अधिकार प्रदान किया है। आत्मा से परमात्मा बनने की सतत् क्रिया के स्वरूप का नाम ही 'तस्वार्थसूत्र' है। यह जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ 'मोक्ष' तक का रास्ता प्रशस्त करता
है।
जैनागम का सार भी एक ही है- संसार से परिभ्रमण का अन्त अर्थात् मुक्ति । इसीलिए प्रत्येक ज्ञानी जिसे आत्म तत्त्व का बोध सच्चे अर्थों में हो जाता है, 'मोक्ष' की कामना करता है। उस परम आनन्द की जिसे प्राप्त करने के उपरान्त समस्त कामनाएं विराम ले लेती हैं, यह जीव अन्तिम पड़ाव 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।
'तत्त्वार्थसूत्र' जैसे महनीय ग्रन्थ पर यह 'राष्ट्रीय संगोष्ठी' प्राणी मात्र के जीवन में 'मुक्ति' के माहात्म्य को चेतना में उतारकर 'मोक्षमार्ग' का अनुगामी बनने में सहायक बने ।