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________________ तत्त्वार्थस्त्र की व्याख्याओं का वैशिष्टय * डी. राकेश जैन, जैन साहित्य में संस्कृत भाषा की आद्य रचना का श्रेय प्राप्त करने वाला ग्रन्थ है तत्त्वार्यसूत्र । इसका महत्त्व मात्र इसके लिए ही नहीं, अपितु इसमें जिनागम के मूल तत्त्वों का संक्षेप व सुग्राह्य शैली में विवेचन होने से यह जैन साहित्य का विशेष सम्मानप्राप्त ग्रन्थराज है । इसके लगभग साढ़े तीन सौ सूत्रों में करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग का सार समाया हुआ है। सर्वाधिक विशेषता की बात तो यह है कि यह प्रत्येक सम्प्रदाय में मान्य है। इसी कारण इस पर सभी सम्प्रदायों में अनेक टीकाओं की रचनाएँ हुई। इसके महत्त्व को ख्यापित करने के लिए यह कहना भी अपर्याप्त ही लगता है कि जैसे सनातन धर्म में गीता, मुस्लिम में कुरान एवं ईसाई में बाइबिल का महत्त्व है लगभग वही महत्त्व जैनधर्म में इसका है। कारण, उपमित ग्रन्थों में सारभूत सिद्धान्तों का सम्पूर्ण कथन नहीं है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में वह सब भी है। - इसका महत्त्व इसलिए भी है कि इसके आधार पर अनेक ग्रन्यों की रचनाएँ हुई । इसका उपयोग कृतिकारों ने अपनी अपेक्षा के अनुसार पर्याप्त किया है। संक्षेप में यदि कहा जाये तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि इसमें 'गागर में सागर' समाने वाली कहावत चरितार्थ हुई है। सर्वार्थसिदि पाँचवी शताब्दी में इस धरा को सरस्वती के प्रसाद से मण्डित करने वाले आचार्य पूज्यपाद की तत्वार्थ पर सर्वप्रथम प्राप्त होने वाली इस टीका का नाम तत्त्वार्थवृत्ति है। किन्तु वर्तमान में इसे सर्वार्थसिद्धि के नाम से जाना जाता है। जबकि इसके पुष्पिका वाक्य एवं प्रशस्ति में प्राप्त श्लोक से इसके तत्त्वार्थवृत्ति नाम की ही सूचना मिलती है। यथा स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायेंजैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता। सर्वार्थसिविरिति सद्भिरूपात्तनामा, तत्वावृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥१॥ इसी श्लोक में तत्त्वार्थवृत्ति के विशेषण रूप में दिये गये सर्वार्थसिद्धि के कारण मालूम होता है इसका नाम सर्वार्थसिद्धि भी प्रचलित हो गया। इसके नामकरण का कारण लिखते हुए उन्होंने स्वय लिखा है - तत्त्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः, शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या। १.म.लि. प्रशस्ति, बारा-सर्वोदय जैन विद्यापीठ, सिदायतन परिसर, महावीरनगर, छोटा करीला, सागर, (075821 267433
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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