________________
हस्ते कृतं परमसिद्धिसामृतां तैयमरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम् ॥ २॥
215
अर्थात् अर्थ के सार को ज्ञात करने के लिए जो व्यक्ति धर्म-भक्ति से सत्त्वार्थवृत्ति को पढ़ते और सुनते हैं वे परमसिद्धि के सुखरूपी अमृत को हस्तगत कर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्रपद के सुख के विषय में तो कहना ही क्या ?
किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि प्रशस्तियुक्त इस ग्रन्थ में टीका के कर्त्ता का कोई नामोल्लेख नहीं हुआ। फिर भी इसके कर्ता का उल्लेख अन्यस्रोतों से उपलब्ध हो जाता है। यथा श्रवणबेलगोल के जैन शिलालेखों में इसका उल्लेख है । अतः यह स्पष्ट रूप से मान्य है कि यह टीका आचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दि की ही है।
इस वृत्ति में तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पद का निर्वचन या विवेचन एवं शका-समाधानपूर्वक किया गया है । टीका ग्रन्थ होने पर भी इसमें मौलिकता अक्षुण्ण है। इसमें निर्धारित किये गये पारिभाषिक शब्दों के लक्षण आरातीय आचार्यों के द्वारा ब्रह्मवाक्य की तरह प्रयुक्त हुए हैं। आपके द्वारा संस्कृत भाषा के जिस परिनिष्ठित रूप को प्रयुक्त किया गया है उससे तत्कालीन संस्कृत भाषा के विकास की तो जानकारी मिलती ही है, साथ ही उस भाषा पर आपके असाधारण अधिकार का परिचय भी होता है। आपकी सुसंस्कृत एवं कान्त पदावलि जहाँ आपके पाण्डित्य की परिचायक है, वहीं नवम अध्याय में प्रयुक्त दीर्घसामासिक एवं माधुर्यपूर्ण वाक्यरचना प्रमेय से आप्लावित रससिक्तता के अन्यतम उदाहरण हैं ।
आचार्य पूज्यपाद ने सूत्रकार की तरह इस वृत्ति का निर्माण किया है। उनकी परिभाषायें अल्पाक्षर, असन्दिग्ध और सारभूत हैं। उन वाक्यों में सिद्धान्त की गूढता एवं दार्शनिक गाम्भीर्य के साथ व्याकरण की सुसंगतता दर्शनीय है। यही कारण है कि इसके लगभग प्रत्येक पद को आचार्य अकलंकदेव ने वार्तिक रूप में ग्रहण कर उनकी विशद व्याख्या की है।
इसमें अनेक मौलिकताएँ एवं विशेषताएँ उपलब्ध हैं, प्रत्येक अध्यायों में संश्लिष्ट । उन सभी विशेषताओं का निदर्शन करा पाना लेख जैसे छोटे स्थल पर संभव नहीं है। अतः एक-दो विशेषताएँ ही देना उचित होगा । यथा
V
पशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए सात या पाँच प्रकृतियों का उपशम बतलाया गया है। लेकिन वह किम तरह होता है इसके उत्तर में आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि - "काललळ्यादिनिमित्तत्वात्' अर्थात् काल लब्धि आदि के निमित्त से होता है। जहाँ आगम में इनके लिए पाँच लब्धियों का विवरण मिलता है वहीं यहाँ पर काललब्धि को प्रमुख माना गया है। 5
इसके साथ ही आचार्य पूज्यपाद ने जातिस्मरण आदि कतिपय कारणों की व्याख्या भी की है जो धवला आदि में होते हुए भी सर्वत्र नहीं हैं।
आचार्य पूज्यपाद की दृष्टि में हिंसा और बहिंसा की परिभाषा मात्र क्रियात्मक न होकर भावात्मक है। इसीलिए उन्होंने इसके विवेचन में पर्याप्त रस लिया है साथ ग्रन्थान्तरों की कारिकायें भी उद्धृत की हैं। उन्होंने अपने विवेचन में स्पष्ट किया है कि जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ प्राणों का घात न होने पर भी हिंसा है, क्योंकि वहाँ भाव रूप में हिंसा मौजूद है।' १. स. सि. प्रशस्ति, २
२. स. सि. २/३.