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12 / तस्वार्थसूत्र-निकव
समय संकेत :
आचार्य गृपच्छ का समय निर्धारण नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार वीर निर्वाण सम्वत् 571, संवत् 101 आता है। 'विद्वज्जनबोधक' में निम्नलिखित पद्य आता है -
वर्वसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृतौ ।
उमास्वामिमुनिर्जातः कुन्दकुन्दस्तथैव च ॥
अर्थात् वीर निर्वाण सवत् 770 में उमास्वामी मुनि हुए तथा उसी समय कुन्दकुन्दाचार्य भी हुये । नन्दिसंघ की पट्टावली में बताया है कि उमास्वामी 40 वर्ष 8 माह आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु 84 वर्ष की थी और विक्रम संवत् 142 में उनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो. हार्नले, डा. पिटर्सन' और डा. सतीशचन्द्र ने इस पट्टावली के आधार पर उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान् माना है।
'विद्वज्जनबोधक' के अनुसार उमास्वाति का समय विक्रम संवत् 300 आता है और यह पट्टावली के समय से 150 वर्ष पीछे पड़ता है।
जो कि विक्रम
इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में 683 वर्ष की श्रुतधर आचार्यो की परम्परा दी है और इसके बाद अंगपूर्व के एकदेशधारी विनयधर, श्रीदत्त और अर्हद्दत्त का नामोल्लेख कर नन्दिसंघ आदि सघों की स्थापना करने वाले अर्हबलि का नाम दिया है। श्रुतावतार में इसके पश्चात् माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि के उल्लेख हैं। इसके बाद कुन्दकुन्द का नाम आया है। अत: आचार्य गृद्धपिच्छ आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् अर्थात् 683 वर्ष के पश्चात् हुए हैं। यदि इस अन्तर को 100 वर्ष मान लिया जाये, तो वीर निर्वाण संवत् 783 के लगभग आचार्य गृद्धपिच्छ का समय होगा ।
यद्यपि श्रुतधर आचार्यों की परम्परा का निर्देश धवला', आदिपुराण', नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली और त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि में आया है, पर ये सभी परम्पराएँ 683 वर्ष तक का ही निर्देश करती हैं। इसके आगे के आचार्यो का कथन नहीं मिलता। अतएव श्रुतावतार आदि के आधार से गृद्धपिच्छ का समय निर्णीत नहीं किया जा सकता है।
मल्लवादी के नयचक्र और उसकी टीका में तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य के उद्धरण हैं। मल्लवादी वीर निर्वाण संवत् 884 में विद्यमान थे, अत: उमास्वाति का समय इनसे पूर्व का है।
१. विद्वज्जन बोधक,
२. And ant, XX P. 341, 351.
2. Peerrsons Aourth report on Sanskrit Manuscripts, P. XVI.
४. History of the Mediaval School of Indian Logic. P. 8,9.
५. अबला, पु. 9/130.
६. आदिपुराण, 2/137.
७. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग 1, किरण 4, पृ. 71.
८. त्रिलोकप्राप्ति, 4/490-91.