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तत्वार्थावगमभाष्य की कारिकाओं में प्राप्त नन्द्यन्त प्रधान नामों के आधार पर तथा कई सैद्धान्तिक मान्यता के आधार पर पण्डित नाथूराम प्रेमी जी ने आचार्य उमास्वाति का सम्बन्ध यापनीय संघ परम्परा के साथ अनुमानित किया है ।'
मैसूर नगर तालुका के 46 नं. के शिलालेख में एक श्लोक आया है -
तरुणाय
तस्यार्थसून कर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । केवलदेशीयं वन्देऽहं मुचमन्दिरम् ॥
इस श्लोक में 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण आचार्य उमास्वाति के लिए प्रयुक्त हुआ हैं। यही विशेषण यापनीय संघ के अग्रणी वैयाकरण शाकटायन के साथ भी आया है। इस आधार से भी उमास्वाति यापनीय संघ की परम्परा से सम्बन्धित सिद्ध होते हैं।
श्वेताम्बर विद्वान् धर्मसागर जी की पट्टावलि मे प्रज्ञापनासूत्र के रचनाकार श्यामाचार्य के गुरु हादितगोत्रीय स्वाति को ही तत्त्वार्थ रचनाकार उमास्वाति मान लिया है। यह उमास्वाति के नाम के अर्धांश की समानता के कारण भ्रान्ति पैदा हुई संभव है।
उमास्वाति और स्वाति दोनों का गोत्र भी एक नहीं है। स्वाति हारितगोत्रीय थे।' उमास्वाति का गोत्र कोभीषण माना गया है।"
श्रवणबेलगोला के 65 न. के शिलालेख में प्राप्त उल्लेखानुसार उमास्वाति आचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में हुए हैं। किन्तु इस शिलालेख के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वाति का साक्षात् गुरु-शिष्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता । अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावार्थशब्दोत्तरगृद्धपिच्छ ।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति मान्यस्तात्कालिकाशेबपदार्थवेदी ॥
१. तत्त्वार्थसूत्र परिचय, पं. सुखलाल संघवी.
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 533.
इन उल्लेखों से प्रकट है कि आचार्य गृद्धपिच्छ आचार्य कुन्दकुन्द के उत्तराधिकारी थे। मेरे अभिमत से दोनों के नाम के साथ 'गृद्धपिच्छ' शब्द का जुडा होना को इंगित करता है कि आचार्य कुन्दकुन्द का विशेषण आचार्य उमास्वामी के साथ जुड़ गया अथवा आचार्य उमास्वामी की महानता के कारण उनका विशेषण आचार्य कुन्दकुन्द के साथ भी प्रयोग किया जाने लगा है। दोनों में से किसी भी अभिमत को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती, फिर भी विद्वज्जन इसका उचित निर्धारण कर निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।
३. मैसूरनगर तालुका, शिलालेख सं. 461.
४. हादियगोत्तं साहं च, 15.
५. कीभीषणिना स्वातितनयेन, 3. (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य कारिका)
६. जैन शिलालेखसंग्रह, भाग 1, सं. 43.