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पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के
विशेष चिन्तन
* प्रस्तुति रतनलाल बैनाडा
प्रथम अध्याय
- ततामाणे ।। 10 ॥ का अर्थ ऐसा भी होता है - वह प्रमाण दो प्रकार का है क्षायिक तथा क्षायोपशमिक । - तनिसर्गादधिगमारा ॥ 3 ॥ यहाँ निसर्गज सम्यग्दर्शन से पहले उस जीव को इस जन्म में या पिछले जन्म में
देशना मिली हो हो, यह आवश्यक नहीं मानना चाहिए। - आसव कार्मणवर्गणाओं का कर्म रूप परिणमन होना है। - अर्यस्य ।। 17यहाँ तक व्यक्त पदार्थ के अवग्रह आदि का वर्णन हुआ । (क्योंकि नीचे अव्यक्त का कथन
आयेगा) - सर्वव्यपयिषु केवलस्य ।। 39 ।। केवलज्ञान का विषय सभी द्रव्यों में तो है परन्तु उनकी भूत और भविष्यत्
काल की अनन्त पर्यायों में तथा वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त पर्यायों में होता है। - श्रुतं मतिपूर्व तपनेकदादाभेदम् ।। 20 ।। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है
और उसके दो भेद हैं - भावश्रुत और द्रव्यश्रुत । भावश्रुत के अनेक प्रकार हैं और द्रव्यश्रुत के 12 प्रकार हैं। रितीय अध्याय
-जानाशानादर्शन .....।।5।। में अन्तिम च शब्द से सज्ञित्व का मतिज्ञान में, मिथ का सम्यक्त्व में तथा योग का
क्षायोशमिक वीर्य में अन्तर्भाव मानना चाहिए। - श्री षट्खण्डागमकार के अनुसार निगोद को वनस्पतिकाय से अलग भी माना गया है। - निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ।। 17 ।। इसमें आभ्यन्तर निवृत्ति जीवात्मक है और बाह्य निवृत्ति तथा दोनों
उपकरण अजीवात्मक हैं। - विग्रहगति में रहने वाला जीव जन्म सहित नहीं होता । अपने शरीर योग्य वर्गणाओं का ग्रहण प्रारम्भ करते ही
जन्म माना जाता है । जन्म के लिये शरीरनामकर्म का उदय अपेक्षित होता है। - पर्याप्तक नामकर्म का उदय होने पर भी विग्रहगति में वह जीव अपर्याप्तक ही कहलाता है। .. *1/205, हरिपर्वत, प्रोफेसर कालोनी, आगरा,