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________________ तत्त्वार्थसून-निका/xXVI में एक सूत्र दिया है - 'मार्च समरम्ब-समारम्भारम्भ-योग-कृत-कारितानुमतकषाय-विशेषस्विस्लिस्विचतुसक' यह सम्पूर्ण सूत्र बताता है कि कोई भी पाप आप मन से, वचन से या शरीर से स्वयं करते हैं या उक्त तीनों से दूसरों से कराते हैं या किसी को मन, वचन, काय से, क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों के वशीभूत होकर उसकी अनुमोदना करते हैं तो आप अपनी आत्मा के लिए बहुत योनियो में भटकाते हैं । अतः पाप के प्रति भी जागृति बहुत मावश्यक है। दण्ड देकर अपराधी को लोहे के सीकचों के भीतर बन्द कर सकते हैं, लेकिन उसकी आपराधिक वृत्ति को दर नहीं कर सकते। उस अपराध पर नियन्त्रण तो केवल धर्म से ही सम्भव है। वा और कासिवात गणित जैसे दुरूह और जटिल विषय को इतने सरल तरीके से प्रस्तुत किये जाने का उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता। जैनकर्म सिद्धान्त की जितनी सार्थक विवेचना की है वह अनूठी है। जैनकर्म सिद्धान्त के विशेषज्ञ आचार्य वीरसेन ने आज से हजारों वर्ष पूर्व जैन गणित में जो कार्य किया और उसके बाद गोम्मटसार मे गणित के जो बीज मिलते है, वहाँ तक अमेरिका और रूस को पहुंचने में अभी 200 वर्ष और लगेंगे। भूगोल एवं खगोल विषयक अवधारणा ___यद्यपि जैन भूगोल और खगोल का वर्णन वर्तमान भूगोल और खगोल से मेल नहीं खाता। परन्तु इसमें कोई असगत बात नहीं है। तस्वार्थसत्र के तीसरे और चौथे अध्याय में जो भौगोलिक और खगोलीय चर्चा की गई है वह आज के विद्यार्थियों को बड़ी अटपटी लगती है। परन्तु यहाँ यह स्पष्ट करना ठीक होगा कि हमारे जैन आगमो में जो विवेचन है वह भाश्वत भगोल के हैं। जैन भूगोल में दो तरह की पृथिवियों निरूपित की गई है - 1. शाश्वत पृथ्वी और 2. अशाश्वत पृथ्वी। ऐसा मैं यह मानता हूँ। भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड को छोड़कर सारी पृथ्वी शाश्वत है। जहां हम रहते है वह अशाश्वतपृथ्वी है और यह अशाश्वतपना काल के प्रभाव से चलता है। केवल भरत और ऐरावत क्षेत्र मे 6 कालो का प्रभाव पड़ता है और वह भी आर्यखण्ड में। तस्वार्थसूत्र में एक सूत्र आया है - 'भरतरावतपोडि-ह्रासी षदासमयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् 3/27' इस सूत्र को आधार बनाकर जब अपने चिन्तन को आगे बढ़ाया तो पाया कि जैन भूगोल और वर्तमान भूगोल में कोई विसंगति नहीं है। जैन अनुश्रुतियों के अनुरूप प्रवर्तित कालचक्र के बारे मे जब विचार करते हैं तो आपको यह मालूम होना चाहिये कि भोगभूमि से कर्मभूमि की ओर जब कालचक्र का प्रवर्तन होता है तो धरती एक योजन ऊपर उठ जाती भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड की धरती योजन भर ऊपर उठ जाने से, वह गोल दिखाई देने लगती है। यही कारण हैकिपरत क्षेत्र के आर्यखण्ड का शेष भरत क्षेत्र से सम्पर्क टूट जाता है। इसी से अनेक क्षुद्रपर्वत और उपसमद्र प्रकट हो मेरा मानना है कि आज जितने भी महासागर और महाद्वीप हैं, ये भरतक्षेत्र के केवल आर्यखण्ड के ही अंग हैं और इस धरती के अचानक ऊपर उठ जाने से जो उत्पन्न हुये उपसमुद्र हैं वे कोई लवणसागर नहीं हैं। इसी प्रकार जितने भी पर्वत हैं वे हिमवान आदि कोई भी पर्वत नहीं हैं वे सब क्षुद्र पर्वत हैं और इन्हीं से नदी आदि उत्पन्न हुई हैं। अत: आज हमें यो स्वरूप दिखता है वह शास्त्रों में उल्लिखित शाश्वत भूमि से मेल नहीं खा पाता है। जैन भूगोल की काल्पनिकता पर जो पाप किये जाते हैं उनका भी समाधान देढा जा सकता है। विद्वान लोग इस चिन्तन को और आगे बढायेंगे।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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