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___ गुणश्रेणी निर्जरा के 10 स्थान श्री उमास्वामी जी ने सूत्र में लिखे हैं। जबकि अन्यत्र निर्जरा के 11 स्थान भी निरूपित 'किये गये हैं। वही सामान्य केवली और समदघातकेवली में अन्तर किया गया है। 'जैनतत्वविद्या' जिसका प्रणयन सारतमुनय ग्रन्थ से हुआ है, में एक सूत्र आता है - 'एकादा निर्जराः' अर्थात् निर्जरा के ग्यारह स्थान हैं। गोम्मटसार में भी 11 स्थान बताये हैं। तीर्थंकर केवली या सामान्यकेवली और समुद्घातकेवली के अलग-अलग दो पद बना दिये। जबकि उमास्वामी ने दोनों पदों को एक में रख दिया । आचार्य वीरसेन ने इसका कारण बताते हुए कहा है कि एक मुनि की निर्जरा की तुलना में सप्तम नरक में रहने वाले अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करता हुआ नारकी एक अन्तर्मुहर्त के लिये ज्यादा निर्जरा कर लेता है। यह सब आपके लिये चौकाने वाली बात है कि एक मुनि जो निर्जरा कर रहा है, उससे कहीं ज्यादा सप्तम नरक का नारकी निर्जरा कर रहा है। इसका कारण बताते हुये आचार्य वीरसेन कहते हैं - एक संयमकाण्डक जन्य निर्जरा है और दूसरी अनन्तवियोजना जन्य निर्जरा है । दूसरा एक ऐसे कर्म पर कुठाराघात कर रहा है, जिसने अनन्तकाल से हमें संसार में बांध रखा है। उसके लिये उस काल में उतनी अधिक विशुद्धि अपेक्षित है । यही जैनदर्शन के भाव प्राधान्य का उदाहरण है। जितनी अधिक विशति होगी. निर्जराका सम्बन्ध उससे ज विशुद्धि ही मेरी कर्म निर्जरा का आधार है। मैं जितना अधिक विशुद्ध बनेगा, मेरे उतने ही पाप कटेंगे। भले ही तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या समझ में न आवे, पर हम जीवन की इस व्याख्या को तो समझ ही सकते हैं। कर्मसिद्धान्त एवं मनोविज्ञान
यहाँ जैनकर्म सिद्धान्त और आधुनिक मनोविज्ञान की तुलना परक जो शोध आलेख प्रस्तुत किया गया, उससे बहुत सारे विचार पल्लवित हुए हैं। उनके आधार से कतिपय नई व्याख्यायें भी की जा सकती हैं। चूंकि हमारी शब्दावली शास्त्रीय है, उन्हें मनोविज्ञान की शब्दावली से यदि जोड़ना चाहें तो हमें समझौता करना होगा। सीधे शास्त्रीय भाषा मे उपयोग करने से ज्यादा सफलता नहीं मिलेगी।
___ यहाँ संज्ञा का अर्थ कामना किया गया । काम को कामना से जोड़ा । जैनाचार्यों ने दो तरह की कामनाएँ कही हैं1. इच्छाकाम, 2. मदनकाम । फ्रायड ने जिसे मदनकाम कहा है, यदि हम उसे कामना के अर्थ में लेते हैं, तो उसे मदनकाम से जोड़ना चाहिये, जो वेदोदय की निष्पत्ति है। और वेद को भी आचार्यों ने राग में लिया है। इसलिये कषाय और राग को अगर मिला दे तो काम शब्द से इसका तालमेल जोड़ा जा सकता है। इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है।
आपने द्रव्यमन और भावमन की बात कही है और मन को पौद्गलिक कहा । मन पौद्गलिक भी है और अपौद्गलिक भी। उन्होंने चित्त को चेतना से जोड़ा है। अगर इसकी व्याख्या करें और चित्त को चेतना की परिणति मान कर क्षायोपथमिक स्थिति मान लें और उसे भावमन का प्रतीक समझ लें तो यह अपौद्गलिक है। मन को केवल अंगोपांग नामकर्म के उदय से निष्पन्न एक अवस्था मानें तो उसे द्रव्यमन का प्रतीक मान सकते हैं, जो पौद्गलिक है। भावमन चैतन्यात्मक है। यदि हम मन को पूर्ण रूप से परिभाषित करें तो प्रथम तो भावमन से जोड दें और दूसरे को द्रव्यमन से जोड़ दें, परन्तु आत्मा इनसे और ऊपर उठी हुई है, यदि इस आधार पर व्याख्या करें तो सब कुछ आगम के अनुकूल बैट जायेगा।
यहाँ पुण्य और पाप की भी चर्चा की गई है। इस सम्बन्ध में हमें अपनी अवधारणा स्पष्ट कर लेनी चाहिए। कभीकभी शास्त्र चर्चा में यह सुना कहते हैं कि पुण्य सोने की बड़ी और पाप लोहे की बेड़ी है, लेकिन बेड़ी तो बेड़ी है तथा पाप